Arasuri Ambaji Mata Temple Gujarat : गुजरात और राजस्थान की सीमा पर बनासकांठा जिले में अरावली पर्वतमाला के आरासुर पर्वत पर अम्बा माता का प्राचीन मन्दिर विद्यमान है। पुराणों में भी इस मन्दिर का उल्लेख है। इस मन्दिर का निर्माण पूर्व वैदिक युग में हुआ प्रतीत होता है। इस मन्दिर के सन्दर्भ में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है –
‘देवी भागवत पुराण’ के अनुसार ऋषि कश्यप के रम्भासुर और कम्भासुर नामक दो शक्तिशाली और महत्त्वाकांक्षी पुत्र थे। रम्भासुर ने गान्धर्व, पांचाल और नागों को पराभूत कर रानी महिषी से विवाह किया, और इनका पुत्र महिषासुर हुआ। महिषासुर अत्याचार का जीवन्त प्रतिमान था। देवी देवताओं की प्रार्थना से शक्तिरूपिणी देवी की रचना हुई। (जानिए कैसे प्रकट हुई महादुर्गा ) क्योंकि एक नारी ही महिषासुर का वध कर सकती थी। इस शक्ति स्वरूपा ने महिषासुर का वध किया और महिषासुर मर्दिनी के रूप में जगत में प्रसिद्ध हुई। इसी महिषासुर मर्दिनी का वात्सल्य रूप अम्बा माता है।
पुराणों में लिखा है कि श्री विष्णुभगवान के चक्र से कट-कटकर देवी के देह के प्रथक्-पृथक् अवयव भूतलपर स्थान-स्थान पर गिरे और गिरते ही वे पाषाणमय हो गये । भूतल के ये स्थान महातीर्थ और मुक्ति क्षेत्र हैं । ये सिद्धपीठ कहलाते हैं और देवताओं के लिये भी दुर्लभ प्रदेश हैं । अर्बुदारण्य प्रदेश के आरासुर (आरासन) नाम के रमणीय पर्वतशिखर पर श्री अम्बिका जी का भुवनमोहन स्थान विद्यमान है। यहाँ सती के हृदय का एक भाग गिरा था । अतएव उसी अंग की पूजा अब भी होती है ।
अवश्य देखें – आरासुरी अम्बाजी की श्लोकमय कथा – कुलदेवीकथामाहात्म्य
दिल्ली से अहमदाबाद को जाने वाली बी.बी.सी.आई. रेलवे लाइन पर आबूरोड एक स्टेशन है । वहाँ से आरासुर तक करीब चौदह मील का रास्ता है । यह रास्ता बड़े ही सुन्दर घने जंगलों में होकर जाता है । सवारी के लिए बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी के अतिरिक्त नियमित मोटर-सर्विस का भी प्रतिबन्ध है । पैदल जाने में कोई असुविधा नहीं होती । मजदूर आसानी से मिल जाते हैं, जो यात्रियों का सामान बहुत कम मजदूरी में पर्वत तक स्वयं पहुँचा देते हैं, उनके साथ-साथ जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। रास्ते में नाना प्रकार के पुष्पों की सुगन्ध और छोटे-बड़े झरनों के सुन्दर दृश्य मन को ऐसा मुग्ध कर देते हैं, कि पैदल चलने वाले यात्री को मार्ग के कष्ट का कुछ भी अनुभव नहीं होता । रास्ता निरापद है, चोर डाकू या जंगली जानवर का कोई भय नहीं रहता है । शिखर पर पहुँचते ही यात्री वहाँ के अलौकिक दृश्य को देखकर भावोन्मत्त हो जाते हैं । मार्ग में गगनचुम्बी पर्वतश्रेणी, लता-पत्र-पुष्प-विचित्रा वनभूमि, छोटे-बड़े झरनों का वक्र प्रवाह, श्वापदोंसे भरा हुआ गहन कानन, शस्य श्यामल कृषि क्षेत्र, ताल-तमाल-नारिकेल-परिवेष्टित ग्राम, साधु–सन्यासियों के योगाश्रम प्रभृति प्राकृतिक दृश्य यात्रियों के मन को आनन्द से आप्लावित कर देते हैं । छोटे-छोटे लड़के भी श्री माताजी की कृपा से पैदल आनन्द पूर्वक खेलते-कूदते चले जाते हैं । मार्ग में बालकों की ‘जय अम्बे, जय अम्बे’ की ध्वनि बहुत ही प्यारी लगती है । आबूरोड स्टेशन से तीन मील की दूरी पर एक तेलिया नामक नदी मिलती है । जिसको तेल लगाना या तेल का बना हुआ पदार्थ खाना होता है, वह यहीं लगा-खा लेता है क्योंकि इसके आगे तेल का व्यवहार बिलकुल ही नहीं होता । इसके आगे रास्ते में दो जगह भीलों की चौकियाँ हैं, फी आदमी एक आना कर देना पड़ता है । बारह मील की दुरी पर पर्वत की तलहटी में बसे हुए घर मिलते हैं, जिसे श्री अम्बिकाजी का नगर कहते हैं । नगर में प्रवेश करने पर श्री हनुमान मन्दिर तथा भैरव मन्दिर मिलता है ।
आरासुर पर्वत के सफेद होने के कारण श्रीअम्बिकाजी ‘धोळा गढवाली‘ माता के नाम से उकारी जाती हैं । भगवतीजी का मन्दिर संगमरमर पत्थर से बना हुआ है और बहुत ही प्राचीन है । मन्दिर के चारों ओर धनी पुरुषों ने अपनी-अपनी कामना-सिद्धि के उपलक्ष्य में लाखों रुपये व्यय करके धर्मशालाएँ बनवा दी हैं । ऐसी धर्मशालाओं संख्या साठ के करीब है । इससे यह स्थान छोटा सा सैनिटोरियम बन गया है । धर्मशालाओं में उनके मालिकों की ओर से यात्रियों लिए पलंग, बिचौना, बर्तन वगैरह सब प्रकार की सुविधा रहती है । साधारण मनुष्यों को तो घर से भी अधिक यहाँ आराम मिलता है ।
गुजरात प्रान्तभर के बच्चों का मुण्डन संस्कार प्रायः यहाँ ही होता है । कहते हैं कि श्री कृष्ण भगवान् का मुण्डन संस्कार यहीं हुआ था । गुजरात में कदाचित् ही कोई ग्राम होगा जहाँ इस पीठ के उपासक न हों । उपासकों में केवल हिन्दू ही नहीं, बल्कि पारसी,जैन और मुसलमान आदि भी हैं । इस स्थान का इतना बड़ा माहात्म्य है कि प्रतिवर्ष लाखों यात्री दूर-दूर से श्री अम्बा माता के दर्शन के लिए आते हैं, सहस्त्रों मनुष्यों की कामनाएँ माताजी की कृपा से पूरी हो जाती हैं । पुत्रहीनों को पुत्र की प्राप्ति होती है, धनहीनों को धन की, रोगियों को स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है । मनोती करने वाले की जब मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वह जब तक श्री माताजी का दर्शन नहीं कर लेता, तब तक कोई नियम ले लेता है और प्राणपण से उसका पालन करता है । मन्दिर में जिनका पूजन होता है, वे महादेवजी की पत्नी हिमाचल और मैनाजी की पुत्री दुर्गादेवी हैं । इनको ‘भवानी’ अर्थात काम करने की शक्ति या ‘अम्बा’ यानी जगत की माता भी कहते हैं, यह मन्दिर बहुत प्राचीन है । आँगन में जो चौके जड़े हुए हैं, वे इतने घिस गए हैं कि उन्हें देखकर सहज ही मालूम हो जाता है कि मन्दिर कितना पुराना है और कितने लोग माताजी के दर्शन करने आते हैं ।
माताजी का दर्शन सवेरे 8 बजे से लेकर 12 बजे तक का होता है । भोजन का थाल रखने के बाद बन्द हो जाता है और फिर शाम को सूर्यास्त के समय बड़े ठाट के साथ आरती होती है । उस समय बहुत भीड़ होती है । मन्दिर में बेशुमार छत्र और सभामण्डप में बहुत से घण्टे लटकते हुए दिखाई देते हैं, जिन्हें श्रद्धालु यात्रियों ने लगवाया है । आरती के समय दर्शनार्थी यात्री इन सब घण्टों को बजाते हुए ध्यान मग्न हो जाते हैं ।
- माताजी को तीनों समय तीन तरह की पोशाक पहनायी जाती हैं । इससे वे सबेरे बाला, दोपहर को युवा और शाम को वृद्धा के रूप में दिखायी देती हैं ।
- वास्तव में माताजी की कोई आकृति नहीं है ; केवल एक बिसायन्त्र है, जो शृङ्गार की भिन्नता के कारण ऐसा दिखायी देता है ।
- जब तक यात्री माताजी के दरबार में रहते हैं, तब तक खाने, जलाने और सिर में लगाने के काम में तेल की जगह घी का व्यवहार किया जाता है । पति-पत्नी साथ आने पर भी यहाँ जब तक रहते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं ।
- माताजी मन्दिर के पास एक विशाल चौक है, इसे चाचर कहते हैं । इस चाचर में रात को एक बहुत बड़ा तवा घी से भरकर जलाया जाता है, इसे भी चाचर कहते हैं ।
- राजस्वला स्त्री और सूतक लगे हुए लोग माताजी के चाचर में नहीं जा सकते । ऐसे लोगों के रहने के लिये अलग धर्मशालाएँ बनी हैं । यदि कोई राजस्वला स्त्री चाचर चली जाती है तो रात के समय जलते हुए घी में धड़ाका होने लगता है और उसमें से ज्वाला और धुआँ निकलने लगता है, जब राजस्वला स्त्री वहाँ से चली जाती है तब ये उपद्रव शान्त हो जाते हैं । इसी प्रकार दिन के समय माताजी के मन्दिर पर लगे हुए तीनों त्रिशूल डोलने लगते हैं ।
- माताजी को थाल रखाने वाले को कोठारी से पहले ही आज्ञापत्र ले लेना पड़ता है । आज्ञापत्र मिल जाने पर पुजारी एक चाँदी का बरतन दे देता है और उसी में रखकर भोग की सामग्री एक निश्चित समय पर ली जाती है । भोग लगने के समय ब्राह्मण लोग शोला (एक प्रकार का पवित्र वस्त्र) पहनकर माताजी पादपूजन कर सकते हैं और पास जाकर दर्शन कर सकते हैं ; क्योंकि उस समय भीड़ नहीं रहती ।
राम-लक्ष्मण, श्रीकृष्ण व पाण्डवों ने भी की है अम्बाजी की आराधना
ऐसा माना जाता है कि शुम्भ ऋषि के कथनानुसार राम-लक्ष्मण ने अम्बामाता की आराधना की। अम्बाजी ने ‘अजय’ नामक एक बाण राम को दिया। इसी बाण से राम ने रावण का वध किया था। द्वापर युग में द्वारिकाधीश श्री कृष्ण ने अनवरत तीन दिनों तक अम्बामाता की पूजा की थी। पाण्डवों ने भी अम्बा माता की पूजा की। माता ने भीम को ‘अजय’ माला दी। अर्जुन ने अज्ञातवास के समय अपनी पोशाक यहीं छुपा कर रखी थी। अज्ञातवास के पश्चात् पाण्डवों ने इस मन्दिर का पुनः निर्माण करवाया।
अम्बामाता का मन्दिर गुजरात और राजस्थान की सीमा पर बनासकांठा जिले में है। 833 वर्ग किलोमीटर में अम्बाजी ग्राम है। यह समुद्रतल से 480 फ़ीट ऊपर है। यह स्थान आबू रोड़ के बहुत समीप है।
आरासुरी अम्बाजी माता के हैं 7 वाहन
महाशक्ति अरासुरी अम्बामाता के 7 वाहन हैं इसलिए सप्ताह के प्रतिदिन इनका अलग-अलग श्रृंगार होता है। रविवार को व्याघ्रवाहिनी है, सोमवार को ऋषभवाहिनी, मंगलवार को सिंहवाहिनी, बुधवार को ऐरावतवाहिनी, गुरूवार को गरुड़वाहिनी, शुक्रवार को हंसवाहिनी, और शनिवार को गजवाहिनी है। इनमें व्याघ्रवाहिनी स्वर्णमण्डित और शेष वाहिनियाँ रजतमण्डित हैं।
अखेराज का अखण्ड दीप
इस मन्दिर में घी का अखण्ड दीप प्रज्वलित रहता है। ऐसा कहा जाता है कि मंदसौर के व्यापारी अखेराज ने माता की कृपा से अतुल धनराशि अर्जित की तब श्री अखेराज ने आधी धनराशि मन्दिर को भेंट कर दी। तब से आज तक इस परिवार की ओर से इस मन्दिर में अखण्ड दीप ज्योति प्रज्वलित रहती है। यहाँ शीत, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु में प्रातः, मध्याह्न और संध्या की आरती का समय अलग-अलग निर्धारित है।
कैसे पहुंचें –
कुलदेवी अरासुरी अम्बाजी माता के आबू रोड़ तक ट्रैन और आबू रोड़ से सीधी बस व्यवस्था है। मन्दिर व्यवस्था का दायित्व देवस्थान विभाग का है।
क्या अम्बा माता अंबोदीया गौत्र की कुलदेवी है