‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’
करौली की कैलामाता
इतिहास
Kaila Mata Karauli Katha Itihas : कैलामाता का शक्तिपीठ राजस्थान में करौली से लगभग 25 कि.मी. की दूरी पर त्रिकूट पर्वत की सुरम्य घाटी में स्थित है। कैलामाता को करौलीमाता भी कहा जाता है। कैलामाता करौली के यदुवंशी राजपरिवार में कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। महामाया महालक्ष्मी का स्वरूप होने से अग्रवाल समाज इन्हें कुलदेवी के रूप में पूजता है। अग्रवाल व यादव समाज के अतिरिक्त अन्य अनेक समाजों में भी माता को कुलदेवी के रूप में पूजा जाता है। वे लोकदेवी हैं।
कैलामाता के मूल मन्दिर की स्थापना प्राचीनकाल में हुई थी। त्रिकूट पर्वत के समीपवर्ती वन में रहने वाले नरकासुर नामक राक्षस से पृथ्वीलोक के प्राणी पीड़ित थे। मथुरानरेश राघवदास के समय में प्राणियों की प्रार्थना से प्रसन्न होकर, योगमायास्वरूपा कैलामाता ने कालीरूप धारण कर, नरकासुर का संहार किया। तब से भक्तों ने उन्हें कुलदेवी के रूप में पूजना प्रारम्भ कर दिया। मन्दिर का विकास स्थानीय यदुवंशी शासकों द्वारा समय-समय पर कराया गया। इनमें मथुरा से आकर बयाना राज्य स्थापित करने वाला यादव शासक विजयपाल (1040-1092 ई.) उसका पुत्र तिम्मनपाल (1093-1159 ई.), उसका वंशज करौली-संस्थापक अर्जुनपाल (14वीं सदी) व परवर्ती उत्तराधिकारी गोपालदास भौमपाल आदि प्रमुख थे। प्रतिवर्ष चैत्रमास के नवरात्रपर्व पर सबसे बड़ा मेला लगता है। तब लाखों श्रद्धालु दर्शनार्थ आते हैं।
मन्दिर के समीप कालीसिल नदी धनुषाकार बहती है। नदी के पवित्र जल में स्नान करके श्रद्धालु देवी का दर्शन करते हैं। मन्दिर के प्रवेशद्वार पर देवी के वाहन सिंहों की सुन्दर प्रतिमाएँ स्थित हैं। मन्दिर में संगमरमर के विशालकाय खम्भे हैं।
मन्दिर में कैलामाता की मूर्ति के साथ चामुण्डामाता की भी प्रतिमा है। कैलामाता की प्रतिमा का मुख थोड़ा टेढ़ा है। लोकमान्यता के अनुसार एक भक्त को किसी कारणवश मन्दिर में प्रवेश नहीं करने दिया गया। वह निराश लौट गया। तब से भक्तवत्सल माता उसी दिशा में निहार रही है।
कैलामाता की अनुकम्पा पाने का सबसे सुगम उपाय उनके गण लांगुरिया को प्रसन्न करना है। लांगुरिया को राजी किये बिना कैलामैया से मनोवांछित फल नहीं मिल सकता। मेले के दौरान हजारों भक्त लांगुरिया नृत्य करते हुए गाते हैं –
कैलामैया के भवन में घुटमन खेले लांगुरिया।
कैलादेवी के मन्दिर में की गई हर मनौती पूरी होती है। करौली के यदुवंशी राजा चन्द्रसेन के पुत्र युवराज गोपालदास को अकबर ने दक्षिण-विजय के लिये भेजा तो उसने विजय की मान्यता मानी। दक्षिणी भारत में युद्धों में विजय पाने के बाद उसने मन्दिर में निर्माण कार्य कराया। इसी प्रकार करौलीनरेश भंवरपाल ने भी यात्रियों की सुख-सुविधा हेतु सड़कों व धर्मशालाओं का निर्माण कराया। चैत्रशुक्ला अष्टमी को निकलने वाली शोभायात्रा में करौलीनरेश के सम्मिलित होने की परम्परा है।
कैलामाता के मन्दिर के विशाल परिसर में गणेश, लांगुरिया, बोहरा व भैरव के मन्दिर बने हैं।
भारतीय जनमानस में कैलादेवी के प्रति अपार आस्था है। आस-पास के तथा दूरस्थ स्थानों के श्रद्धालु रंग-बिरंगे परिधानों में सज-धजकर माता के दरबार में हाजिर होते हैं। कोई माथा टेकने, कोई मन्नत मांगने तो कोई मन्नत पूरी होने पर जात देने आते रहते हैं। वे भोग-प्रसाद चढ़ाते हैं, जगराता करवाते हैं तथा कन्याओं को जिमाते हैं।
कैलामाता के प्रति लोक-आस्था का चित्रण करते हुए डॉ. राघवेन्द्रसिंह मनोहर लिखते हैं :-
कैलादेवी को प्रसन्न कर मनोवांछित फल पाने का सबसे सीधा सरल उपाय उनके गण लांगुरिया को राजी करना माना जाता है। … चैत्र के नवरात्र में घण्टियों की घनघनाहट और कैलादेवी के जय-जयकार मध्य गुंजित स्वर-लहरियों में लांगुरिया से देवी तक श्रद्धालुओं की प्रार्थना पहुँचाने का अनुरोध अनेक बार सुनाई पड़ता है। कैलादेवी के प्रति भक्तों की आस्था और विश्वास इतना दृढ़ है कि एक मनौती के पूरा होते ही वे दूसरी मनौती मांगने में तनिक भी संकोच नहीं करते। श्रद्धालु इस विश्वास के साथ अपने घरों को लौटते हैं – ‘अबके तो हम बहुएं लाए हैं, अगली बार जडूला लाएंगे।’
श्री कैला माता दुर्लभ संस्कृत कथा स्तुति
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