श्रीदधिमथीमाता मंगल
डॉ. रामकुमार दाधीच द्वारा राजस्थानी भाषा में रचित भक्तिरचना श्रीदधिमथीमाता मंगल पाठकों के लाभार्थ प्रकाशित की जा रही है। पाठ करने योग्य यह रचना गोठ-मांगलोद की श्री दधिमथी माता की कथा, महिमा तथा आध्यात्मिक तत्त्व विवेचन से समन्वित है। इसकी कथावस्तु का आधार श्री दधिमथी पुराण है।
नोट:- दधिमथी माता मंगल प्रकाशन के सर्वाधिकार मिशन कुलदेवी द्वारा सुरक्षित हैं। आप इस मंगल का पाठ कभी भी इस Site पर कर सकते हैं। यदि आप इसकी छपी हुई प्रति/प्रतियाँ प्राप्त करना चाहते हैं तो सम्पर्क कीजिये
प्रथम चरित्र
सर्वदा सर्वदा सर्वरूपा सर्वहितैषिणी।
माता दधिमथी भक्त्या वन्द्यते भक्तवत्सला।।
जय गणपति गिरिजासुवन मंगलकरण कृपाल।
सेवक के दुख दूर कर कीजे देव निहाल।।1।।
मांगलोद अरु गोठ द्वय मध्य दाहिमा क्षेत्र।
श्रीकुलदेवी दधिमथी सफल दरस सैं नेत्र।।2।।
ब्रह्मकपाल दिव्य अति धामा। दधिमथी राजै पूरण कामा।।
शक्तिपीठ निरुपम रमणीया। दर्शन उपजै श्रद्धा हीया।।
मातृधाम पावन सुखमूला। तीर्थाटन नाशै भवशूला।।
महिमा अमित न जाय बखानी। अगति चित्त मति अक्षम बानी।।
हे जगदम्बा दधिमथि माता। करुणा सिन्धु वत्सला ख्याता।।
कृपा अनन्त तुम्हार अजानी। बरणूं कियां जीव अज्ञानी।।
दीजे सृजन शक्ति जगदम्बा। केवल कृपा तेरि अवलम्बा।।
तेरी वस्तु तनैं मां अर्पण। तव प्रतिबिम्ब होय हिय दर्पण।।
बरणूं कथा पुरातन मातृकृपा सिर नाय।
ब्रह्मानन्द सहोदर रस अभिव्यक्ति उपाय।।3।।
क्षत्रिय नाम सरूपसीं युवा अश्व असवार।
दाहिम आयो एकदा क्षुधाग्रस्त बीमार।।4।।
मन्दिर दीख्यो दूर सैं उन्नत मन हरसाय।
युवा होय आश्वस्त बो गयो कुण्ड पर आय।।5।।
कुण्ड निकट तरु कुंज कुटीरा। तपरत द्विज दाधीच सुधीरा।।
विष्णुदास तपमूर्ति उदारा। देविमन्त्र जप व्रत हिय धारा।।
ब्रह्मचर्य व्रत नैष्ठिक दधिमथि भक्त प्रपन्न।
असंकल्प व्रत साधक कारण बिना प्रसन्न।।6।।
कार्य मग्न लखि शीश नवायो। करि जलपान पीठ में आयो।।
प्रविशत चैन हिये में छायो। तड़पत मीन जियां जल पायो।।
दावानल झुलस्यो जियां हाथी घुस्यो तड़ाग।
धूप तप्यो मरु पथिक घन छांह लही सौभाग।।7।।
कुसुम वाटिका रम्य मनोहर। सुरभित दिव्य भव्य अति मन्दिर।।
अम्ब दरस कर हिय अनुराग्यो। पुलकित करण वन्दना लाग्यो।।
नमो नमो दुख बन्धन हारिणि। नमो नमो शरणागत तारिणि।।
माँ तेरा घट घट में बासा। जाणो हो सबकी अभिलाषा।।
मैं मतिमन्द अबोध दुख्यारो। कियां करूं गुणगान तुम्हारो।।
हे माँ कृपा दीन पर कीजे। निज सुत जाण दु:ख हर लीजे।।
विप्र रसोइ बणा ले आयो। मन्दिर क्षत्रिय बैठ्यो पायो।।
क्षुधा रोग आतुर मुख दीना। दमित तेज उत्साह विहीना।।
ब्रह्मचारि नै देख के उठ कीन्यो परणाम।
एकटक निरखै चन्द्रमा ज्यूं चकोर अविराम।।8।।
दीरघ वपु व्यक्तित्व मनोहर। तेज युक्त मुख अतिशय सुन्दर।।
निजता सहज नयन में सोहै। सस्मित अधर अरुण छवि मोहै।।
ब्रह्मचारि बोल्यो मृदु बानी। अति वात्सल्य प्रीति रस सानी।।
कौन पुत्र कित जाय एकाकी। युवा मौन निरखै छवि बां की।।
दिव्य प्रभाव वचन में बां कै। दृष्टि सूक्ष्म हिरदै में झांकै।।
आभा सैं व्यक्तित्व की युवा शान्ति हिय पाय।
लोहा ज्यंू चुम्बक खिंच्यो गयो चरण लिपटाय।।9।।
नयन अश्रु हिय विह्वल अरु रोमांचित गात।
रुद्ध कण्ठ आवेग सैं बोल सक्यो नहिं बात।।10।।
दयाभाव तब युवक उठायो। लगा भोग भोजन करवायो।।
पा वात्सल्य युवा अनुराग्यो। आत्मकथा तब बरनन लाग्यो।।
देव राज्य बागोर अधीशा। पिता मोर हर लीन्यो ईशा।।
भ्राता ज्येष्ठ शेरसिंह नामा। अति क्रूर छीन्या मम ग्रामा।।
प्रतिदिन अपमानित करै ढावै अत्याचार।
ईं दुख सैं आयो व्यथित विवश त्याग घर-बार।।11।।
आयुध जीवी चाकरी करस्यूं दूसर देश।
बोल्यो ब्रह्मचारि तब त्यागो सुत हिय क्लेश।।12।।
श्रद्धामय तुम सद आचारी। गहो शरण दधिमथि महतारी।।
गोत्र विविध कुल वर्ण समाजा। आवैं ध्यावैं पूरैं काजा।।
माँ को भजन परम हितकारी। ईं में हैं सब जन अधिकारी।।
त्याग कपट छल अरु चतुराई। जो पूजै माँ नै चित लाई।।
मन वांछित फल निश्चय पावै। सार्थक नाम कृतज्ञ बतावैं।।
वरदायिनि दधिमति जगदम्बा। सकल इष्टप्रद जगदालम्बा।।
वरवाचक दध् धातु सुजाना। सिद्ध विशेषण वेद पुराणा।।
ऋषि अथर्व घर ले अवतारा। दधिमथि कहलाई संसारा।।
दधिमति श्री हो दधिमथी ब्रह्मकपाल स्थान।
अठै बिराजी अम्बिका करण जगत कल्याण।।13।।
मन चायो वर पायसीं राखो दृढ विश्वास।
कोई ईं दरबार सैं लौट्यो नहीं निराश।।14।।
माँ को भजन कीरतन वन्दन। कथा श्रवण भवपीर निकन्दन।।
सुणत सरूप चित अनुराग्यो। हाथ जोड़ कर कैवण लाग्यो।।
देव और महिमा बतलाओ। ज्ञान पिपासा सकल मिटाओ।।
सन्त युवा संग कुण्ड कै निकट शमी तरु छांह।
बैठ्यो बोल्यो है सुत शुभ थारो उत्साह।।15।।
दिव्य अलौकिक तीर्थ यो कुण्ड सुणो धर ध्यान।
महालक्ष्मि राजै अठै दधिमति पीठ स्थान।।16।।
महालक्ष्मि सर्वादि सुजाना। मूल प्रकृति अगुण गुणवाना।।
दृश्य अदृश्य रूप जग व्यापै। कियो सर्ग यो आपूं-आपै।।
एक अद्वैत अपर कुछ नाहीं। मकड़ी ज्यूं धृत जग निज माहीं।।
व्यक्ताव्यक्त रूप नहिं भेदा। शक्ति रूप जग गावैं वेदा।।
सात्विक राजस तामस रूपा। ब्राह्मी लक्ष्मी काली अनूपा।।
निज संकल्प शक्ति अपनाया। त्रय देवी त्रय सुर प्रकटाया।।
ब्रह्मा विष्णु महेश्वर देवा। कीन्या युग्म मूल यह भेवा।।
ब्रह्मा ब्रह्माणी तथा लक्ष्मी विष्णु सरूप।
गौरीशंकर युग्मत्रय सृष्टि अधार अनूप।।17।।
आदि युग्म कृत सर्ग सुजाना। अपर युग्म पोषै विधि नाना।।
युग्म तृतीय सृष्टि संहारै। आत्मनि शक्ति प्रपञ्चहिं धारै।।
उपजै शक्ति स्वरूप सैं सब कुछ तत्र समाय।
वही शक्ति साकार यह दधिमथि लेओ ध्याय।।18।।
कृपा मात की जीं पर होवै। कष्ट समस्त शीघ्र बो खोवै।।
कण्टक पुष्प विपिन प्रासादा। विष अमृत सागर गोपादा।।
अगनि तुषार होय रिपु सुहृदा। गिरि रज सम नाशैं सब विपदा।।
बहरो सुनै मूक जय बोलै। देखै अन्ध पंगु गिरि डोलै।।
मात विनय सुन भक्त उबारै। ज्यंू गो आतुर वत्स सम्भारै।।
दधिमथि जगतारिणि विख्याता। धारक भक्त दु:खहर ताता।।
नम्र सरूप जोड़ जुग पानी। निज अभिलाषा पुन: बखानी।।
आदि सर्ग स्थल भेद बताओ। ब्रह्मकपाल तत्त्व समझाओ।।
माता कै प्राकट्य की कथा सृष्टि पर तत्त्व।
महिमा शक्तीपीठ की दधिमथि नाम महत्त्व।।19।।
ब्रह्मचारि अतिशय अनुराग्या। पुलकित कथा कहण तब लाग्या।।
दधिमथि कथा तात सुखमूला। श्रवण मनन नाशै जग शूला।।
मातृकथा गंगा ज्यूं पावनि। रवि ज्यूं कलिकृत कलुष नशावनि।।
इष्टफलप्रद विपतिनिहन्ता। कलि अक्षय नाशक हनुमन्ता।।
भगती ज्ञान बिराग कि खानी। करै विषय आसक्ती हानी।।
आनन्द होय हृदय संचारा। मोह विषाद सकल अपसारा।।
तप व्रत योग दान फल दाता। महाविकट संकट सैं त्राता।।
भूत प्रेत राक्षस भय नाशक। हिय जगदम्बा प्रेम विकासक।।
तब तक जीवन में सन्तापा। प्रज्ञा दोष दैन्य अरु पापा।।
जब तक मातृकथा नहिं सुनहीं। सुनत अग्नि तृण ज्यूं सब जरहीं।।
चिन्तामणि अरु कल्पतरु देय जगत के भोग।
मातृकथा जूणी सफल अन्त मातृसंयोग।।20।।
सुणो पुरातन वृत्त सुजाना। सृष्टि हेतु ब्रह्मा हिय ठाना।।
नीरमग्न धरती अवलोकी। बुद्धी बां की हुई सशोकी।।
ले वाराही शक्ति को अवलम्बन श्रीविष्णु।
अवतरि धरणी उद्धरी रूप वराह सहिष्णु।।21।।
पहलां पुष्कर कानन जल सैं निकल्यो तात।
विस्तृत बहु योजन हुयो हर्षित निरख विधात।।22।।
सरस्वती नागाद्रि सैं प्रकटी वत्स सरूप।
करण लग्या ब्रह्मा तप सरिता तीर अनूप।।23।।
तीर कपाल दिव्य यो थाप्यो। शक्ति अमोघ मन्त्र तब जाप्यो।।
ब्रह्म कपाल नाम विख्याता। हुयो फलप्रद पावन ताता।।
ईं कपाल कै नाम सैं क्षेत्र कपाल कहात।
सैनाणी अरु देन है ब्रह्मा की विख्यात।।24।।
तपबल सिरज्या मानस नन्दन। तपोराशि अघ ओघ निकन्दन।।
कीन्यो पुष्कर कानन अध्वर। विविध सृष्टि ब्रह्मा की सत्वर।।
मानस पुत्र सरूप अथर्वा। तपोमूर्ति शुभ सत्त्व अगर्वा।।
शान्ति सुकन्या कर्दम तनया। परहितरत परणी शुभ समया।।
मधुर भाषिणी शुचि वेदज्ञा। श्रमशीला दानी स्थितप्रज्ञा।।
पालत धर्म गृहस्थ बहु बीत्या वर्ष सुजान।
किन्तु गृहस्थी फल सुखद हुई नहीं सन्तान।।25।।
कुलविस्तार हेतु मन पीड़ा। करै अथर्व मति चिन्ता क्रीड़ा।।
पति की व्यथा व्यथित सन्नारी। शान्ति पतिव्रतनिष्ठ दुख्यारी।।
एक दिन अग्रज नारद आयो। दम्पति दरस परम सुख पायो।।
स्वागत कीन्यो तत्पर आनन किन्तु उदास।
बोल्यो नारद हे अनुज क्यूं थे दिखो निराश।।26।।
बोल्यो अनुज सुणो ऋषिराया। सन्तति बिन छीजै है काया।।
कीन्या जप तप दान अपारा। बिरथा सब न मिट्यो दुख भारा।।
नारद कह्यो अनुज तज चिन्ता। प्रज्ञा श्रद्धादिक गुणवन्ता।।
तजो निराशा करो उपाया। चिन्ता बलनाशिनि ऋषिराया।।
सुणो अनुज प्रिय एक वृतान्ता। पुरा कह्यो जो पिता विधाता।।
चिन्ता नाशै धैर्य बढ़ावै। हिय आनन्द लहर उपजावै।।
मृत्युलोक में भ्रमत मैं देखी जनता खिन्न।
भीत व्यथित रोगी विकल कारण सबका भिन्न।।27।।
ब्रह्मलोक जा पूछी बाता । कारण विविध दुखी सब ताता।।
मिटै अनिष्ट इष्ट सब होवै। के उपाय जो मन मल धोवै।।
कह्यो पिता सुत सुणो उपाया। जीं कै फल सब मिटैं अपाया।।
महालक्ष्मि आद्येश्वरि माता। दधिमति इष्टदेवि मम ताता।।
तासु नाम जप क्षमता पाई। कृपा अलौकिक सृष्टि रचाई।।
तासु प्रभाव विष्णु जग पालत। शक्ति अधार महेश नशावत।।
नाम जाप सम सुकृत नाहीं। धातु जियां पारस सम नाहीं।।
नाम जाप फल बिस्वा बीसा। जप्यां न त्रासै दु:ख मुनीशा।।
मेटै जितणा दु:ख है माताजी को नाम।
उतणा जग में दु:ख ना यह दृढ मत गुणधाम।।28।।
उड़ै पतंग ज्यूं गगन मझारी। पात्र कुवै सैं खींचै वारी।।
यो सब डोरी कै परभावै। नाम सुमिर त्यूं मां नै पावै।।
विवश होय अणजाण में अथवा सुत परिहास।
मातृनाम मुख नीसरै पूरै मन की आस।।29।।
असत् असंग संग सत् मां सन। मैत्रि दया समता धारै मन।।
देश काल सब मां का ध्याना। मां हित कर्म करै सब नाना।।
आत्मनिवेदन करै सहर्षा। सहै भोग बिन राग अमर्षा।।
मां सम सब प्राणिन सैं प्रीती। नाशैं दु:ख सकल ईं रीती।।
प्राणी पुत्र सदा करैं मातृकथामृत पान।
लीला गुण अरु नाम को कीर्तन करैं अमान।।30।।
ईं आचरण शुद्ध मन होय सत्त्व गुण वृद्धि।
बीं सैं जीवन में हुवै भाव प्रपत्ति समृद्धि।।31।।
गुणातीत प्रपन्न हों चित्त बुद्धि ईं रीति।
दु:खमुक्त सेवारत जीवैं जीव सप्रीति।।32।।
शर्यणावत पर्वत निकट दधिमती धाम।
पुष्कर त्रय उत्तर दिशा योजन आठ सुनाम।।33।।
तीर सरस्वति पावन सोहै क्षेत्र कपाल।
तपोभूमि मम नारद राजै जन प्रतिपाल।।34।।
बठै करै नवरात्र प्रवासा। करै पाठ व्रत सहित हुलासा।।
हो अविलम्ब पूर्ण अभिलाषा। मन आनन्दित मिटै निराशा।।
भ्रात जाय तुम बसो वहां पर। जहां बिराजै मात अनश्वर।।
दधिमति महालक्ष्मि जगदम्बा। सूक्ष्म रूप पूजो अविलम्बा।।
अनुष्ठान नवरात्री कीजे। दधिमति पूजि इष्ट फल लीजे।।
बीं की कृपा सन्तती पाओ। भाव अनन्य प्रपन्न मनाओ।।
निश्चय होय वंश विस्तारा। चाल्या नारद हर दुख भारा।।
पाय अथर्वा प्रेरणा चाल्या दधिमति धाम।
भार्या शान्ति समेत बै पहुंच्या तीर्थ ललाम।।35।।
तपोभूमि निज जनक की देख प्रफुल्लित गात।
सूक्ष्म सन्निधी मात की प्रेम न हृदय समात।।36।।
बहै सरस्वति सरिता पावन। सिंचित धरा हरित मन भावन।।
पूरै सरिता ब्रह्म कपाला। रम्य दृश्य निहार निहाला।।
आश्रम कीन्यो दम्पती ब्रह्म कपाल सुरम्य।
कुटिया यज्ञस्थल रुचिर विस्तृत मार्ग सुगम्य।।37।।
कियो प्रपन्न दम्पती शारदीय नवरात्र।
अनुष्ठान श्री दधिमती प्रकटी जाण सुपात्र।।38।।
भाव विभोर चरण सिर नाया। ऋषि उत्तम स्तुति वचन सुणाया।।
आदि शक्ति जय जय जगदम्बे। व्यक्ताव्यक्त प्रभावालम्बे।।
निर्गुण सत रज तम हो धारो। सृष्टि सृजो पालो संहारो।।
ऋषिगण ब्रह्मा विष्णु महेशा। जाणैं नहीं स्वरूप सुरेशा।।
नमो नमस्ते माँ जगदम्बे। श्री प्रपन्नजनदत्तालम्बे।।
सुण सभाव वच दियो अशीषा। लख्यो समर्पण बिस्वा बीसा।।
सुत अथर्व नवरात्र व्रत कीन्यो सह बिस्वास।
हूँ प्रसन्न वर माँग कर मेट हियै की प्यास।।39।।
ऋषि कह सुत दीजे महतारी। दानी शीलवान यशकारी।।
वंश विवर्धक धर्मपरायन। तव प्रपन्न भक्त करुणायन।।
एवमस्तु माँ सस्मित भाषी। हुयो हुलास निराशा नाशी।।
बोली शान्ति वचन सिर नाई। अहो पुत्र आग्रह ऋषिराई।।
सन्तति हित माँ को व्रत कीन्यो। सुता विहाय पुत्र वर लीन्यो।।
काहे भेद उभय ऋषिराया। कन्या नाम नहीं मुख आया।।
कन्या रूप स्वयं जगदम्बा। प्रगटै सृष्टि यज्ञ अवलम्बा।।
सेवा मूरति सरल सुभावा। कन्या जन्म यज्ञ मम भावा।।
पुत्र जनक ले कन्या दाना। दाता कन्याजनक महाना।।
वंश अहंतामूलक नाथा। प्रकृति-पुरुषलीला जग गाथा।।
वागाम्भृणी दिव्यता पाई। अम्भृण ऋषि की कीर्ति बढ़ाई।।
गार्गी विदुषि अपाला घोषा। उज्ज्वल नाम कियो कुल योषा।।
बोली शान्ती लीजिए बेटी को वरदान।
भगिनि स्नेह पावै तनय पावन गेह सुजान।।40।।
सुणी बात ऋषि हिय संकोच्या। मोहमूल पुत्राग्रह सोच्या।।
करी प्रार्थना हे महतारी। शान्ति वचन निश्चय शुभ कारी।।
नाहं मम नहि किंचित लोके। ज्ञानवंश नर होयं विशोके।।
सारी सत्य शान्ति की वाणी। कन्या तव स्वरूप मैं जाणी।।
कन्या रूप करो हो लीला। प्रकृति स्वरूपा थे गुणशीला।।
मैं यो भेद समझ नहिं पायो। बन्धमूल आग्रह श्रुति गायो।।
दीजे कन्या वर जगमाता। होवै जन्म धन्य सुरत्राता।।
हो प्रसन्न जगदम्बिका बोली वचन उदार।
सुत अथर्व सन्तुष्ट मैं देख युगल व्यवहार।।41।।
सुता रूप थारै घर आऊँ। विकटासुर खल दैत्य नशाऊँ।।
कुल को योगक्षेम मैं धारूँ। कुलदेवी हो पार उतारूँ।।
कर्दमसुता निपुण सुविवेका। धन्यभाग कोटिन्ह में एका।।
ईं की नीति जगत सुख पासी। रखो मान कुल सम्पत आसी।।
जग नारी मम रूप अथर्वा। कला अंश वत्सला अगर्वा।।
मातृवचन सुण शान्ति विभोरा। लखै अम्ब ज्यंू चन्द चकोरा।।
पुलकित कीन्ही वन्दना सफल जन्म मम मात।
करी निमित अवतार की सुख नहिं हृदय समात।।42।।
जगद्धात्रि जगदम्बिके बिनवौं मैं सिर नाय।
विश्वेश्वरि भगवति शिवे दर्शन दीन्यो आय।।43।।
ब्रह्मा विष्णु महेश कुबेरा। सुर नर ध्यान धरैं माँ तेरा।।
देव दनुज निज भाव मनावैं। यथा भाव फल सब जन पावैं।।
निज जन जाण अनुग्रह कीन्यो। अनपेक्षित दुर्लभ वर दीन्यो।।
कृपा अकारण करुणाशीला। बिन बादल हुई वृष्टि करीला।।
महिमा अमित पार नहिं पावैं। अगति प्रपन्न मुग्ध गुण गावैं।।
मैं मतिमन्द विवेक विहीना। के समझूं लीला अति दीना।।
सुता रूप अवतार ले करो कृपा विस्तार।
जीं सैं कन्यागौरव जाणै सब संसार।।44।।loading…
सुण्या अथर्वा वचन उदाता। भार्यामुख किय दृष्टि निपाता।।
दृष्टिक्षेप म्हामाया अम्बा। शान्तिगर्भ प्रविशी अविलम्बा।।
कालक्रम अवतरी पराम्बा। दिव्य स्वरूपा जगदालम्बा।।
आश्विन शुक्ला अष्टमी शुक्रवार शुभवार।
प्रगट हुई जगदम्बिका हर्षित शान्ति अपार।।45।।
देदिप छवि बहु भुजा मनोहर। धरे चक्र पाशादिक निज कर।।
कोटि सूर्य शशि तेज सदृश मुख। दर्शन कर उपज्यो अतिशय सुख।।
हुया शकुन शुभ त्रिभुवन नाना। अशकुन विकटहिं तथा प्रमाना।।
बोली शान्ति कृपा माँ कीजे। कर शिशुलीला आनंद दीजे।।
पराशक्ति कै रूप में धरै अमित ब्रह्माण्ड।
कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तंु योग्य अकाण्ड।।46।।
बा ही कन्या रूप धर रोय शान्ति की गोद।
शैशव लीला निरखतां दम्पति धन्य समोद।।47।।
इति श्रीदधिमथीचरिते प्रथमचरित्रं सम्पूर्णम्।।
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मध्यम चरित्र
दधिर्भक्तजनान् धात्री मथी तद्दु:खमाथिनी।
माता दधिमथीत्येवं वन्दिता नम्यते बुधै:।।
योगक्षेम निज मातपिता का। धारण कीन्या माँ दुखितां का।।
निसन्तानता व्यथा मिटाई। बीं सैं माँ दधिमथि कहलाई।।
सुत सरूप जनम्यो तत: देवी कै वरदान।
नाम दधीची प्रथित जग दानी तेज निधान।।1।।
नम्र सरूप कह्यो हे ताता। कहो विकट वध को वृत्तान्ता।।
विष्णुदास मन हर्ष अपारा। लाग्या करण कथा विस्तारा।।
सतयुग विकटासुर बलवन्ता। दैत्य हुयो उत्कट जनहन्ता।।
घोर तपस्या अज परितोषे। ब्रह्मा कह्यो मांग वर मोसे।।
वर मांगत विकटासुर बोल्यो। करो अमर सुण अज मन डोल्यो।।
सुत अमरत्व असम्भव लोके। मृत्यु सुनिश्चित रुके न रोके।।
आगत यहाँ रह्यो नहिं कोई। मांग अन्य वर मन में जोई।।
कह्यो विकट नारी अबल मृत्यु नारि कै हाथ।
होय न अन्य उपाय वर दीजे नावंू माथ।।2।।
एवमस्तु बोल्या चतुरानन। चल्यो विकट सुरपुर तज कानन।।
दानव तब देवां सै भीता। आय गया सब शरण विनीता।।
सेना सजा स्वर्ग पर धायो। भाग्या सुर अधिपत्य नशायो।।
धर्म ध्वंस हित विविध उपाया। किया विकट खल दानवराया।।
दानव ऋषि मुनि मारण लाग्या। बै सब प्राण बचावण भाग्या।।
बस्यो जाय चन्द्रावति नगरी। राजधानि विकटासुर सुपुरी।।
रम्य हम्र्य वाटिका तड़ागा। निर्झरादि उपजावैं रागा।।
जठै होय मख कीर्तन पूजन। करैं असुर गण हिंसा नर्तन।।
पहुँच्या देव पितामह शरणा। नाथ विकट घातक दुखहरणा।।
दीन्यो बिनैं अगम बरदाना। असुर अमर भगवन् म्हे मानां।।
देख दशा दयनीय अति ब्रह्मा हृदय विषाद।
दुखप्रद मेरो वर हुयो यां में नहीं विवाद।।3।।
एकै वस्तु पात्र अनुसारी। देय विविध फल लोक निहारी।।
दूध जदपि अमृत सम ख्याता। जाय सर्पमुख विष हो जाता।।
स्वाति बूँद कदली दल पाई। होय कपूर सबहिं सुखदाई।।
सीपी मुख पड़ सुन्दर मुक्ता। गिर भुजंग मुख विषकण उक्ता।।
विद्या ले खल करैं विवादा। सज्जन बीं सैं हरैं विषादा।।
सम्पति पाय नीच अभिमानी। सज्जन बाँटै जनहित दानी।।
शक्ति अधम मद गर्व विवर्धक। सज्जन होवैं परदुखनाशक।।
मैं वरदान विकट नै दीन्यो। पर सुभाव पहल्यां नहिं चीन्यो।।
कह्यो पितामह देवगण जगत अमर नहिं कोय।
नारी कर सैं निश्चय मृत्यु विकट की होय।।4।।
समझै विकट नारि जग अबला। प्रगटत शक्ति होय बा सबला।।
प्रगटी होय अथर्वा कन्या। आदि शक्ति जगदम्ब अनन्या।।
महालक्ष्मि जगकारिणी दधिमथि कन्या रूप।
राजै देव अथर्व घर करो पुकार अनूप।।5।।
दधिमथि विकटासुर वध करसी। थाप्यां धर्म काज सब सरसी।।
तब अथर्व आश्रम सुर आया। आश्रम निरख घणां हरसाया।।
तरु अशोक खेजडि़ बड़ नीमा। पीपल आम कदलि दाड़ीमा।।
लता कुंज तुलसी बहु सोहैं। वानर मोर हरिण मन मोहैं।।
वेदमन्त्र गावैं मृदु कीरा। शीतल सुरभित नीर समीरा।।
धूम शिखा मख गगन मझारी। कीर्तिपताका सम अति प्यारी।।
बटुक अथर्वसंहिता बोलैं। तरु-तरु पिक शुक कुरजां डोलैं।।
अगवानी कीन्ही ऋषिराई। खेलत दधिमथि कन्या आई।।
दिव्य तेज मनमोहनी कान्ति सहज लावण्य।
करण लग्या सुर वन्दना लीला निरख अवण्र्य।।6।।
आद्याशक्ति देवि म्हामाया। महालक्ष्मि ब्रह्माण्ड निकाया।।
जगधात्री दुखमथनी माता। सच दधिमथि संज्ञा विख्याता।।
जब हो क्षीण धर्म महतारी। अधरम फैलै जगत दुखारी।।
होय मात तब तव अवतारा। धर्मत्राण व्रत माँ तुम धारा।।
नमो राजराजेश्वरी लीन्यो तुम अवतार।
संस्थापन करणै धरम दुष्ट असुर संहार।।7।।
सर्वव्यापिनी हे म्हाविद्या। घट-घट वासिनि माँ जगवन्द्या।।
देवि सिद्धिदा भुक्ति-मुक्तिदा। शरणागतवत्सल शुभ-जयदा।।
मधु कैटभ अरु शुम्भ निशुम्भा। हन्या मात महिषादि सदम्भा।।
रक्तबीज आतंक निवारे। पापी चण्ड मुण्ड संहारे।।
विकटासुर पापी महतारी। नाशी नीति अनीति प्रसारी।।
मात कराल काल है आवा। चहुं दिशि जरै दु:ख की दावा।।
त्रासैं दुष्ट अधम अभिमानी। अत्याचार करैं हठ ठानी।।
हिंसक निर्मम दैत्य महाधम। त्रासैं पीडैं मारैं निर्मम।।
मात तुम्हार यहै मर्यादा। रक्षण धर्म हनन मनुजादा।।
बो अवसर अब आयो माता। अन्तर्यामी जग की त्राता।।
मन्दिर माङ्क्षह कीरतन नाहीं। श्रुति निन्दामय गालि सुनाहीं।।
सेवैं अब माँ असुरगण मद्य मांस सर्वत्र।
दिखैं नहीं ऋषि मुनि भगत कैसी दशा विचित्र।।8।।
मूरति भंजैं मन्दिर ढावैं। श्रुति पुराण सैं आग जलावैं।।
हाहाकार मच्यो चहुं ओरा। व्याप्त पाप भूमण्डल घोरा।।
जगत अनाथ मात तव शरणम्। कीजे शीघ्र सकल दुख हरणम्।।
तुम अनाथ की सदा सहाई। मारो बेगि देवि जगमाई।।
राखो धर्ममार्ग मर्यादा। दु:खहारिणी हरो विषादा।।
दधिमथि दिव्य रूप तब धारा। धीरज दीन्यो वचन उदारा।।
सिंहवाहिनी आयुध धारे। सुर हर्षित जय वचन उचारे।।
सुरसेना सह तब जगमाता। चन्द्रावती गई विख्याता।।
नगर घेर शंखध्वनि कीन्ही। विकट सशंक मृत्यु निज चीन्ही।।
कियो युद्ध बहुकाल तक नाशी सारी सैन।
तब प्रविश्यो दधिसागर रक्षा हेतु अचैन।।9।।
दिव्यशक्ति सागर कियो मथित निकाल तुरन्त।
जगदम्बा दधिमथि कियो विकटासुर को अन्त।।10।।
मरत विकट जगती सुखी हुयो धर्म दृढमूल।
स्वर्ग पलायित सुरन्ह को मिट्यो हियै को शूल।।11।।
कियो प्रणाम चित अनुराग्या। माँ की करण वन्दना लाग्या।।
जय जगदम्बा दधिमथिमैया। करी पार शरणागत नैया।।
पूजां थारा पदकमल सह मन मति वच प्रान।
मुक्ति हेतु ध्यावैं जिन्हैं हिय मुमुक्षु धर ध्यान।।12।।
भक्त विपतिहर तुम विख्याता। को तुम सम पीडि़तजन त्राता।।
म्हे वैभव पा हुया प्रमत्ता। भूल्या थारी कृपा अनन्ता।।
भूलण को फल भी म्हे पायो। कर्मां कै फल सुख बिनसायो।।
सेवक जाण दु:ख हर लीन्यो। मार्यो विकट अनुग्रह कीन्यो।।
चावां अब यो वर हे मैया। भूलां नहीं चरण भव नैया।।
माँ बोली सर्वोत्तम सेवा। जाओ भूलो मत श्रुति भेवा।।
हर्षित देव पुष्प बरसाया। जय जय करता स्वर्ग सिधाया।।
मात अथर्वा आश्रम आई। शान्ति अथर्वा अस्तुति गाई।।
हे जगदम्ब अनुग्रह कीन्यो। अभयदान सब जग नै दीन्यो।।
जग कन्या की साख बणाई। मात-पिता की कीर्ति बढाई।।
भ्रात दधीचि शरण में लीजे। कुलदेवी कुलरक्षा कीजे।।
भ्रात दधीची के कुल विद्या वंशज सर्व।
तिन्ह की कुलदेवी हुई दधिमथि पुत्र अगर्व।।13।।
दधिमथि माँ कै नाम सैं हुयो दाधिमथ क्षेत्र।
क्षेत्र कपाल लोक में सुविदित दाहिम छेत्र।।14।।
पूछण लग्यो सरूपसीं मन्दिर को निर्माण।
कुण करवायो कद हुयो बरणो लेऊँ जाण।।15।।
ब्रह्मचारि मन में हरसायो। आगै को वृत्तान्त सुणायो।।
सुणो पुरातन यो वृत्तान्ता। कृपाप्रकाशक जगविख्याता।।
मान्धाता भूपति हुयो पुत्र पुरातन काल।
नृपमण्डल गुण शोभित खगगण जियां मराल।।16।।
कुटिल पड़ौसी भूप मिल गुणद्वेषी सीमान्त।
छीन लियो भू-भाग बहु नरपति हुयो अशान्त।।17।।
मन्त्री विज्ञ नरेश को प्रज्ञाशाली वृद्ध।
कह्यो शरण जा मात की पावो राज समृद्ध।।18।।
दधिमथि महालक्ष्मि जगदम्बा। आद्या शक्ति प्रपन्नालम्बा।।
कारज सारैगी माँ सारा। गया शरण बै हुया सुख्यारा।।
आयो पावन क्षेत्र कपाला। श्रीजगदम्बा शरण नृपाला।।
करवायो जगदम्बा अध्वर। घटना घटी दिव्य बीं अवसर।।
प्रगट हुयो भू-गर्भ सैं श्रीविग्रह यो दिव्य।
नृप मन्दिर बणवाइयो अधरखम्भ युत भव्य।।19।।
पायो विस्तृत वैभवशाली राजा राज्य।
बढी समृद्धी इन्द्र सम अनल पाय ज्यंू आज्य।।20।।
ब्रह्मचारि बोल्यो कथा अपर सुणो अब तात।
श्रीदधिमथि जगदम्ब को महिमामय वृत्तान्त।।21।।
मरुधर नृप जसवन्तसीं दिल्ली मनसबदार।
मुगल राज्य सेनापती जाणै सब संसार।।22।।
बादशाह की चाल सैं मृत्यु हुई परदेश।
ले राणी सुत चालियो दुर्गादास स्वदेश।।23।।
अतिशय कोप बादस्या कीन्यो। हुकम गिरफ्तारी को दीन्यो।।
रूप बदल सब बेगा धाया। दाहिम क्षेत्र चालता आया।।
राणी रुग्ण अजित अति छोटो। पीछै मुगल अन्न को टोटो।।
प्राण बचावण मन्दिर आया। पीछै लग्या मुगल चकराया।।
दिख्या न कुंवर राणि अरु जोधा। सह वाहन मुगलां किय शोधा।।
लौटे मुगल निराश हो माता रक्षा कीन्ह।
शरणागत जन सकल को प्राणदान दे दीन्ह।।24।।
परचो पा राणी हरसाई। पूजक माँ की कथा सुणाई।।
सुणी कथा राणी अनुरागी। ले शरणूं गुण गावण लागी।।
नमो नमो दधिमथि जग जननी। शरणागत की संकट हरनी।।
नमो नमो सन्तति प्रतिपालक। अजित प्रपन्न अरक्षित बालक।।
ईं दुख अक्षम बुद्धि मन मेरा रोगी गात।
रक्षा कीजे अजित की तुम्हीं सहायक मात।।25।।
रोगमुक्त राणी हुई कीन्ही करुणा मात।
पायो राज अजीतसीं कथा अन्य सुण तात।।26।।
मालाणी भू-भाग है सुन्दर मरुधर देश।
पावन बठै सुहावणो लघु ग्राम भाद्रेश।।27।।
ईशभक्त एक बारहट सूरो चारण वंश।
अमरबाइ अर्धांगिनी सती नारि अवतंस।।28।।
निसन्तान सुत हित भजै सूरो नित गोपाल।
अभ्यागत सेवा करै सन्त नवावै भाल।।29।।
दिवस एक आयो सह सन्ता। देविभक्त आचार्य अनन्ता।।
सूरो घट-घट देखै देवा। घरां बुलाय कीन्ह बहु सेवा।।
सन्त प्रमुख आचारज बोले। मांगो वर सुत सूरा भोले।।
मांग्यो सूरो सुत वरदाना। दीन्यो वर अनन्त तपवाना।।
चल्यो अनन्त सन्त सह सन्ध्या करतां ध्यान।
जाण्यो सूरा कै नहीं लिखी भाग्य सन्तान।।30।।
त्यागी देह अनन्त तब जनम्यो सूरा गेह।
मुदित चित्त सैं दम्पती अणभ्यो पुत्र सनेह।।31।।
ईसरदास नाम तस राख्यो। लोरी मात ईश गुण भाख्यो।।
जोबन पाकर ईसरदासा। रच्या अनेक ग्रन्थ मरुभाषा।।
गयो द्वारका ईसर पुरी पवित्र महान्।
सागर तट हरिभक्तिमय हरिरस रच्यो सुजान।।32।।
रुक्मिणि कृष्णहिं बो सिर नायो। प्रमुदित हरिरस काव्य सुणायो।।
कही रुक्मिणी ईसरदासा। पुत्र काव्य हरिभक्ति प्रकाशा।।
उत्तम छन्द भाव तव भाषा। अलंकार गुण रीति विलासा।।
मातृवन्दना बिन नहिं पूरी। पितृस्तुति एकाकि अधूरी।।
मातृभक्तिमय रचना कीजे। भक्तिकाव्य निज पूरण कीजे।।
ईसर वचन सुणत हरसायो। भाव विभोर चरण सिर नायो।।
स्थायिभाव गत जन्म को हुयो तुरत उद्बुद्ध।
देवीमहिमा सैं हुयो लौकिक भाव निरुद्ध।।33।।
प्रमुदित करण वन्दना लाग्यो। लोचन नीर हृदय अनुराग्यो।।
अहो मात मम जीवन धन्यम्। पुत्रशरीरं जननीजन्यम्।।
जीवन तव अर्पण अब माता। त्याग्यो असत् लोक सैं नाता।।
कृपामयी दीजे आशीषा। देवियाण हो बिस्वा बीसा।।
मातृपीठ तीर्थाटन कीजे ईसरदास।
बोल्या माधव निश्चय सफल होय अभिलाष।।34।।
सर्व शक्तिमय जगत सुजाना। लीला करै रूप धर नाना।।
निज सन्तति हित मात विराजी। पीठ विविध कुल भक्त नवाजी।।
दर्शन कर जीवन सफल पूर्ण करो अभिलाष।
ले अशीष पद नमन कर चाल्या ईसरदास।।35।।
शक्तितीर्थ दर्शन हिय ठाना। पहुंच्या देविधाम बै नाना।।
यात्रा करत अठै भी आया। दर्शन कर मन में सुख पाया।।
महिमा जाणी मात की अरु दधीचि वृत्तान्त।
बोली माता काव्य तव सफल होयसी तात।।36।।
देवियाण भ्रमतां रच्यो तीरथ ईसरदास।
वेद पुराण सम्मत अद्भुत भक्ति प्रकाश।।37।।
ईसरदास द्वारका जाई। कृष्ण रुक्मिणी सन्निधि पाई।।
देवियाण स्तुति गाय सुणाई। सुण माता रुक्मिणि हरसाई।।
देवियांण सुण देवि मां श्रीमुख कियो बखान।
देवियाण है ईसरा चण्डीपाठ समान।।38।।
मां करुणावरुणालय रूपा। महिमा अकथ सरूप अनूपा।।
भक्तन्ह पर सर्वस्व लुटावै। नित्य कृपा अमृत बरसावै।।
भक्त असंख्य आय कर धामा। करैं विविध पूजन अविरामा।।
आद्या शक्ति रूप कइ ध्यावैं। कइ कुलदेवी रूप मनावैं।।
अपर लक्ष्य तज मंजिल पाई। भजो मात सेवक सुखदाई।।
सविनय कह्यो सरूपसीं दीजे मनैं सुणाय।
देवियाण ईसरकृत कह्यो सन्त हरसाय।।39।।
देवियाण स्तुति दिव्य सुण पुत्र सरूप सुजान।
श्रद्धापूर्वक पाठ सैं पूरा हों अरमान।।40।।
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कह्यो सरूप देव मैं करस्यूं ईं को पाठ।
विष्णुदास बोल्या सुत करले होसी ठाठ।।41।।
ब्रह्मकपाल नित्य कर स्नाना। लाग्यो करण पाठ देवियाना।।
आत्मनिवेदन करै हमेशा। मन अविचल आलस नहि लेशा।।
।। इति श्री दधिमथी चरिते मध्यम चरित्रं सम्पूर्णम्।।
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उत्तर चरित्र
कुलेषु पूजिता या वै कुलीनभक्तवत्सला।
कुलदेव्यै नमस्तस्यै दधिमथ्यै नमो नम:।।
शारदीय नवरात्र में उमड़ी भीड़ अपार।
निज कुलदेवी पूजणै आण लग्या नर-नार।।1।।
दुर्गा सप्तशती कोइ बांचै। करै कीरतन कोई नाचै।
करै नवार्ण मन्त्र जप कोई। लंगर प्याऊ सेवा कोई।।
गोत्र वर्ण कुल भिन्न पर मन में निष्ठा एक।
कुलदेवी जगदम्ब नैं ध्यावैं भांति अनेक।।2।।
कीर्तन हुयो अष्टमी भारी। झूम्या श्रद्धा नर अरु नारी।।
पाय सन्त अनुरोध विशेषा। लाग्या करण भक्ति उपदेशा।।
एक भक्त पूछण लग्यो श्रद्धा शीश नवाय।
गुरुवर मानव क्यूं दुखी कैयां दु:ख नशाय।।3।।
तृष्णा पुत्र दु:ख को कारण। तृष्णा नाश्यां दु:ख निवारण।।
इन्द्रिय विषय दुखद जग माहीं। तृष्णावश सब धावैं ताहीं।।
बन्धै कामवश हस्ति समाना। लोभ विवश कपि सम अज्ञाना।।
रूप हेतु ज्यूं जरै पतंगा। शब्द हेतु ज्यूं मरै कुरंगा।।
मरै स्वाद हित मीन ज्यूं सौरभ भ्रमर समान।
विषयभोग तज जीव जड़ भजै न मात सुजान।।4।।
करुणामयी कृपा बरसावै। मिनखा जूण जीव तब पावै।।
गर्भ निवास परम दुखदाई। पूर्व स्मृति जागै तब भाई।।
करके याद पुरातन कर्मा। सोचै लख चौरासी मर्मा।।
नाना योनि पूर्व मैं जनमा। कीन्यो स्नेह कुटुम सैं परमा।।
मां हित कर्म कदे नहिं कीन्यो। मां को नाम न मुख सैं लीन्यो।।
जां हित कर्म शुभाशुभ कीन्या। अन्त समय कोइ साथ न दीन्या।।
सकल कर्मफल मैं ही पायो। हाय समय अणमोल गंवायो।।
विविध योनि सह जीवन मरणा। परम दुखी मां तेरी शरणा।।
अब ले जन्म वासना तजस्यूं। दिवस रैन मां तन्नै भजस्यूं।।
जगत प्रपंच न मन में ल्यावूं। मृग मरीचि नहिं आयु नशावूं।।
कर संकल्प गर्भ सैं आवै। ग्रस्त अविद्या किन्तु भुलावै।।
घाव कीट ज्यंू व्याकुल छटपटाय तब जीव।
पंखहीन खग ज्यंू दशा त्रासद विवश अतीव।।5।।
हित अनहित जाणै न अबोधा। अवश विकल रोवै कर क्रोधा।।
शैशव सहै कष्ट बहु जीवा। तडफ़ै मां सुमरै नहिं हीवा।।
पाय जवानी आवै कामा। मोहजनक सब अवगुण धामा।।
नर आसक्त होय विषयां पर। पडै़ पतंग जियां दीपां पर।।
जागैं चित समस्त विकारा। ज्यूं बरखा सरिता की धारा।।
लागैं भोग परम रमणीया। जियां तिमिर आलोकित दीया।।
निजहिं बहुज्ञ कहै मतिमन्दा। लुप्त विवेक अमा ज्यूं चन्दा।।
आत्मरूप तज विकृति धारै। मूरख मणि तज काच निहारै।।
वृद्ध अवस्था जर्जर देहा। शक्ति क्षीण मिलै नहिं स्नेहा।।
शुष्क पुष्प ज्यूं वृक्ष न धारै। वृद्ध जीव त्यूं कुटुम निवारै।।
स्वारथ वश स्नेही संसारा। होय उपेक्षित वृद्ध बेचारा।।
बाल्य मूढ यौवन सविकारा। वृद्ध विषण्ण सहै दुखभारा।।
आयु अल्प अणमोल गवांवै। सिर धुन अन्त मूर्ख पछतावै।।
जाणो तृष्णा कारण माया। परम विकट या जग भरमाया।।
के माया हो कियां निवारण। कह्यो सरूप बताओ कारण।।
असद् द्रव्य सद्दर्शन माया। निज पर भेद यही उपजाया।।
बोल्यो अन्य भक्त द्विजराया। के माया सन्तरण उपाया।।
कह्यो ब्रह्मचारी सुण भैया। माया सैं तारैगी मैया।।
हो सब पुत्र गृहस्थ थे कहस्यूं थारी बात।
है गृहस्थ कुल रक्षिका कुलदेवी विख्यात।।6।।
महालक्ष्मि भवसागर तारिणि। पाप ताप कलि कल्मष हारिणि।।
माँ अविनाशी चिन्मयरूपा। नित्य असीम अनन्त अनूपा।।
सत्त्व सृष्टि विभूतिमय श्रीमत् ऊर्जित येऽपि।
देवि देव फलदायक रूप तासु खलु तेऽपि।।7।।
जो भी जीं भी रूप नै ध्यावै है श्रद्धालु।
मां बीं की बीं में अचल श्रद्धा करै कृपालु।।
नेह नाना किञ्चन कहीं बात या वेद।
अद्वितीय बो तत्त्व ही कुलदेवी यो भेद।।8।।
लेय अनन्य शरण नर बींकी। मिटै दु:ख विपदा जगती की।।
माता स्वयं बात आ बरणी। कुलदेवी भवसागर तरणी।।
कुलदेवी कुल क्षेत्र में जठै बिराजै मात।
कुलपूजित कुलधाम बो कुलजन में विख्यात।।9।।
जा के करै भजन माता का। जात-जडूला निज पुत्रां का।।
महिमा सुणै धाम की गावै। माताजी कै भोग लगावै।।
जद माँ सन्तति नै अपनावै। करै सुखी त्रय ताप मिटावै।।
म्हामाया माया विस्तारै। शरणागत की स्वयं निवारे।।
बोल्यो भक्त विनम्र तब कहिए शरण रहस्य।
तत्त्व विवेचन कीजिए बोले सन्त अवश्य।।10।।
मात भरोसो मात बल मात आस बिस्वास।
शरणागति सिद्धान्त यो मातृभक्ति को खास।।11।।
आनुकूल्य धारण करै प्रतिकूलत्व विहाय।
रक्षक मानै मात नै अरु विश्वस्त सहाय।।12।।
अकिंचनत्व धारै सदा करै आत्मनिक्षेप।
षड्विध आ शरणागती समझो सुत संक्षेप।।13।।
थे कुलदेवी शरणै आया। भजो अनन्य भाव म्हामाया।।
कुलदेवी दधिमथी उदन्ता। कुल जनरक्षापरक अनन्ता।।
सुणो पुरातन काल में मरुधर दाहिमक्षेत्र।
हुयो अकालग्रस्त घन दर्शन तरस्या नेत्र।।14।।
मच्यो राज्य में हाहाकारा। व्याकुल जन बिन नीर अहारा।।
धुल्हण दाहिमभूप उदासा। दान पुण्य कर मिली निराशा।।
ख्याली मांगलोद तरनाऊ। खाटू जायल गोठ रताऊ।।
द्विज दाधीच अनेक सुजाना। आया पीठ करण गुणगाना।।
कह्यो अविघ्ननाग तब मन्दिर पीठ महन्त।
देवि यज्ञ मिल कीजिए वर्षा होय तुरन्त।।15।।
जायल नगर विप्र सब आया। नृप नै सारा बचन सुणाया।।
शक्तिपीठ तब नरपति आयो। दधिमथि दर्शन कर सुख पायो।।
दर्शन हिय उमड़ा अनुरागा। भूपति करण वन्दना लागा।।
नमो नमो सुख करणे वाली। दुख संकट सब हरणे वाली।।
वर्षा बिन है प्रजा दुखारी। आयो माता शरण तुम्हारी।।
विकल प्रजा की रक्षा कीजे। जीवनदान अम्बिका दीजे।।
त्यारी अध्वर की हुई भूप बण्यो यजमान।
आशा जनता कै जगी करण लगी गुणगान।।16।।
माता भक्त बचावणहारी। पूरैगी अब आश हमारी।।
भक्त अविघ्ननाग हरसायो। सविधि यज्ञ सम्पन्न करायो।।
पूर्णाहुति कै दिन सुणो उमड़ी घटा प्रचण्ड।
मारवाड़ नवकोटि में होई वृष्टि अखण्ड।।17।।
जन कृतज्ञ जय वचन उचारे। बचे अनुग्रह मात तुम्हारे।।
गाँव-गाँव द्विज कियो विचारा। हो मन्दिर का जीर्णोद्धारा।।
विपुल द्रम्म संग्रह द्विज कीन्यो। मन्दिर हेतु म्हैन्त नै दीन्यो।।
मन्दिर जीर्णोद्धार करायो। शिलालेख उत्कीर्ण लगायो।।
अमिट कीर्ति यह कुलदेवी की। भक्ति विप्र दाहिम गण नीकी।।
तरुण मन्दमति दाधिच एका। पठन विमुख चिन्तित अविवेका।।
विवश अबोध चित्त अकुलायो। घर तज भटकत मन्दिर आयो।।
लाग्यो मन्दिर करण सफाई। भूखो रह नवरात्रि बिताई।।
दधिमथि माता की कृपा प्रतिभा जगी विचित्र।
देववाणि माँ को रच्यो सरस पुराण चरित्र।।18।।
दुर्लभ तत्त्व भक्ति अरु सेवा। देवै कुलदेवी शुभदेवा।।
अखाराम हरिराम सुजाना। मोहनदास आदि जन नाना।।
कुलदेवी की म्हैर सै पाई भक्ति अनन्य।
जो माता की ध्यावना करैं सकल बै धन्य।।19।।
माँ को जन कै निकटतम है कुलदेवीरूप।
घनीभूत वात्सल्य हितकारी शुभद अनूप।।20।।
मुख कीर्तन श्रुति श्रवण गुणां को। मन अर्पण कारण करुणा को।।
होय प्रपन्न सभाव पुकारो। सुमिरण करो सदा हिय धारो।।
सुण के महिमा मात की हुया भक्तजन धन्य।
बोल्या कुलदेवी कृपा शरण उपाय न अन्य।।21।।
श्रद्धाभक्ति सरूपसीं कियो पाठ नवरात्र।
करुणा दधिमथि मात की हुई विलोकि सुपात्र।।22।।
सुपनै माँ दरसन दियो बोली पुत्र सरूप।
तूं अनन्य शरणागत तेरी भक्ति अनूप।।23।।
कर प्रस्थान पुत्र तत्काला। होवो मेदपाट भूपाला।।
सपनूं प्रात: कियो बखाना। माँ न पूज कियो प्रस्थाना।।
पुत्रहीन मेवाड़ नरेशा। पायो स्वप्र मात आदेशा।।
प्रात: प्रथम व्यक्ति पुर आवै। दीजे राज प्रजा सुख पावै।।
दूत सरूपसिंह नै लेय गया प्रासाद।
राजतिलक बीं को कियो राणाजी अविषाद।।24।।
राणा होय सरूपसीं पूज्यो मां नै आय।
हे माँ कृपा अहैतुकी कीयां बरणी जाय।।25।।
माता मैं तेरी कृपा हुयो रंक सैं भूप।
नमो नमो जगदम्बिके तेरी शरण अनूप।।26।।
भूप ब्रह्मचारी नै बोल्यो। गुरुवर मार्ग विलक्षण खोल्यो।।
सब उपदेश आपकै होयो। सेवाभक्ति मूर्ति दुख धोयो।।
राजधर्म नरधर्म बताओ। शुभ कर्तव्य नीति समझाओ।।
जीवन लक्ष्य बताओ देवा। बोल्या सन्त शरण अरु सेवा।।
सदा शरण माँ की रहो वत्स अमोघ उपाय।
मारग आलोकित हुवै जीवन लक्ष्य दिखाय।।27।।
जीव जगत का सकल हैं माता का ही रूप।
समझ मातृमय जगत नै सेवा कीजे भूप।।28।।
तात्त्विक भेद तत्र कछु नाहीं। स्वर्णाभूषण हेम कहाहीं।।
मातृभाव जीवन्ह पर प्रीती। सबकी सेवा उत्तम रीती।।
पायो भक्तिनीति उपदेशा। भाव विभोर सरूप नरेशा।।
बोल्यो गुरुवर धन्य जमारो। हुयो पाय उपदेश तुम्हारो।।
अर्पण कीन्ही सम्पदा जगदम्बा दरबार।
करवाया निर्माण बहु कक्ष तिबारा द्वार।।29।।
दधिमथिमाता की कृपा सुत सरूप गुणवान।
पायो तब दरबार में आय कियो गुणगान।।
पौराणिक वृत्तान्त यो लोकश्रुति समवेत।
मातृकृपा संग्रह कियो दास स्वान्त सुख हेत।।30।।
मातृकथा रत्नाकर मम मति कागज नाव।
गरुड़ अलंघ्य मच्छर गगन थाह नहिं पाव।।31।।
भवसागर तरणी यह आनंद सम्पद मूल।
भुक्ति भक्ति मुक्तिप्रद हरै त्रिविध भव शूल।।32।।
यह पावन जगदम्ब को चरित हरै सब दोष।
जो श्रद्धा सैं पाठ हो मन में राख भरोस।।33।।
।। इति श्रीदधिमथीचरिते उत्तरचरित्रं सम्पूर्णम्।।
2 thoughts on “दधिमथी माता मंगल – राजस्थानी दोहा चौपाई में रचित भक्तिरचना”