शुभ मुहूर्त देखकर पण्डितजी ने मोहनदास को अध्ययन हेतु अग्रपीठ छोड़ आए। मोहनदास वेदाध्ययन के साथ-साथ स्वामीजी से ध्यानमञ्जरी, श्रीरामप्रपत्ति, अध्यात्मरामायण आदि ग्रन्थों का अध्ययन करते। दो छात्रों गरीबदास और राघवदास के साथ उनकी घनिष्ठ मैत्री हो गई थी। जिनके गुण समान होते हैं, उनमें बड़ी सहजता से स्वाभाविक मित्रता हो जाती है। ये तीनों बालक स्वामीजी को अत्यन्त प्रिय थे। तीनों सांयकालीन भोजन के बाद स्वामीजी की सेवा में पहुँच जाते। ये स्वामीजी के चरण दबाते और उनसे भगवान श्रीराम और हनुमानजी की दिव्य लीलाओं के रहस्य सुनते। आनन्दकन्द भगवान के लीलाचरित भी आनन्दरूप ही हैं। उनके लीलामृत का स्वाद एक बार मन को लग जाये तो वह अन्यत्र कहीं जाना ही नहीं चाहता।
एक दिन मोहनदास स्वामीजी से अध्यात्मरामायण पढ़ रहे थे। गरीबदास और राघवदास भी साथ थे। मोहनदास ने पूछा – गुरुदेव ! हनुमानचालीसा में एक चौपाई है –
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
यहाँ गुरुदेव की तरह कृपा करने का क्या तात्पर्य है ? स्वामीजी बोले- बेटा ! लोक में गुरुकृपा ही सर्वाधिक ,महत्त्वपूर्ण होती है। गुरु साक्षात् परब्रह्म होते हैं। वे ही सबसे अधिक श्रद्धेय, सबसे अधिक विश्वसनीय और सबसे अधिक हितैषी होते हैं; जो शिष्य का अज्ञान दूर करने के लिए मन से चेष्टा करते रहते हैं। गुरु के समान दयालु और दाता कोई नहीं। जिन्होंने भी कुछ प्राप्त किया है, गुरुकृपा से ही प्राप्त किया है। भगवान की प्राप्ति भी गुरु के उपदेश से ही होती है, इसलिए गुरुकृपा को सर्वोच्च मानकर तुलसीदासजी ने हनुमानजी से गुरु के समान कृपा करने का अनुरोध किया है।
हनुमानजी जिसके गुरु होते हैं उसके लिए भगवान श्रीराम के दर्शन सहज सुलभ हैं। विभीषण, सुग्रीव, तुलसीदास आदि को श्रीराम से हनुमानजी ने ही मिलाया था। उन्होंने एक श्रद्धालु मुस्लिम युवक को परावाणी के ध्यान का उपदेश दिया जिससे उसे सात दिन में ही श्रीसीतारामजी के दर्शन हो गये। तुम भी उन्हें गुरुरूप में स्वीकार कर लो तो भगवान श्रीराम की कृपा तुम्हारे लिए सुगमता से सुलभ हो जाएगी।
गरीबदास कृष्णभक्त परिवार से था। उसने पूछा कि क्या हनुमानजी की कृपा से भगवान श्रीकृष्ण की कृपा भी प्राप्त हो सकती है ?
अवश्य ! स्वामीजी बोले। राम और कृष्ण तो एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। श्रीमद्भागवत पुराण में हनुमानजी भगवान श्रीराम की वासुदेव नाम से प्रार्थना करते हैं –
न वै स आत्माऽऽत्मवतां सुहृत्तमः।
सक्तस्त्रिलोक्यां भगवान् वासुदेवः।।
चित्रकूट में ललिताचरण नामक एक बालक हनुमानजी का अनन्यभक्त था। रासलीला देखने के बाद उसकी भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन की इच्छा हुई। उसने हनुमानजी से अनुरोध किया। रात्रि में स्वप्न में प्रकट होकर हनुमानजी ने उसे द्वादशाक्षरी श्री वासुदेव-मंत्र दिया, एक एक तुलसी की माला दी और वृन्दावन जाने के लिए प्रेरित किया। वहाँ उसे नित्य करील की कुञ्जों में श्रीकृष्ण की लीलाओं के दर्शन होने लगे। जिस भक्त की जिस भगवद्-रूप में आस्था होती है, हनुमानजी उसे उसी मार्ग पर चला देते हैं।
मोहनदास ने हनुमानजी को गुरुरूप में स्वीकार कर लिया। अब वे नित्य ब्राह्म मुहूर्त में स्नानादि से निवृत हो हनुमानचालीसा के 108 पाठ करते। उसके बाद अध्ययन प्रारम्भ हो जाता। दिन में अध्यात्मरामायण का स्वाध्याय करते रहते। विद्याध्ययन पूर्ण हो जाने पर वे रुल्याणी लौट आये। वे पौरोहित्य विद्या में निपुण हो गये थे, पर पौरोहित्य कर्म में उनकी रुचि नहीं थी। उनके बचपन के साथी गायें चराया करते थे। मोहनदास भी उनके साथ गायें चराने बीड़ में जाने लगे। उस समय शाहपुरा, रुल्याणी और सेवदड़ा गाँवों के बीच एक बहुत बड़ा बीड़ था।
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कान्ही विवाह योग्य हो गयी थी। सालासरनिवासी पण्डित खींवाराम जी से लच्छीरामजी की घनिष्ठ आत्मीयता थी। उनका भतीजा सुखराम विवाहयोग्य सुन्दर सुशील और व्यवहारकुशल युवक था। सुखराम पिताजी की मृत्यु हो गई थी तथा बड़े भाई टीडियासर गाँव में मन्दिर के महन्त थे। परिवार के जिम्मेदार बुजुर्ग पं. खींवारामजी ही थे। आपसी सहमति से पं. सुखराम के साथ कान्ही बाई का विवाह तय हो गया।
कान्ही की गोद-भराई के नेग के लिए खींवारामजी सपरिवार रुल्याणी आये। वे सुखराम को भी साथ ले आये थे, जिससे झोला-भराई का नेग भी साथ-साथ हो जाये। नेगचार के बाद मिजमानी की रसोई जिमा कर मेहमानों को विदा किया गया।
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रुल्याणी का बीड़ मोहनदासजी की साधनास्थली बन गया था। वे श्रीअग्रदेवाचार्यकृत ध्यानमञ्जरी में निर्दिष्ट ध्यानविधि से भगवान श्रीराम का ध्यान करते। श्री सीतारामजी की मानसपूजा कर उन्हें हनुमानचालीसा सुनाया करते। श्रीबालाजी उनके गुरु थे। गुरुदेव का ध्यान कर उन्हें रामनाम सुनाया करते। पर वे ज्यों ही बालाजी का ध्यान करते उनके मनमन्दिर में एक युवा वैष्णव साधु का रूप उभरता। सिर पर जटाजूट, तेजस्वी चेहरा, माथे पर उर्ध्वपुण्ड्र तिलक घनी दाढ़ी, उठी हुई मूंछें, कानों की ओर झुकती लम्बी भौंहें व कानों में सुन्दर कुण्डल। इन सन्तजी को उसने बचपन में कई बार देखा था। कभी-कभार वे घर आते और सिर पर हाथ कर उसे आशीर्वाद देते थे। जब मोहनदास प्रणाम करते तो सदा एक ही वाक्य बोलते – बेटा ! राम-राम बोलो। मोहनदास राम-राम बोलते। मन्द-मन्द मुस्काते सन्तजी लौट जाते। जब मोहनदास अग्रपीठ में अध्ययन कर रहे थे तब भी उनका यही क्रम था। माँ ने बताया था कि जब वह छोटा था तब भी वे सन्त बालानन्दजी आशीर्वाद देने आते थे। मोहनदास यह नहीं समझ पाते कि जब वे बालाजी का ध्यान करते हैं तो ये सन्तजी क्यों ध्यान में प्रकट हो जाते हैं ; पर यह सोचकर कि कभी-न-कभी तो बालाजी प्रकट होंगे ही, वे जप, ध्यान, पाठ में लगे रहते। उस समय उनके साथी ग्वाले उनकी गायों की रखवाली करते।
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पं. लच्छीरामजी कान्हीबाई के विवाह की तैयारी में व्यस्त थे। मुद्दे का नेग हो जाने के बाद सालासर से चिकनी कोथली आयी तो कान्ही की माँ भात न्यौतने पीहर जा आयी। माताजी की खिचड़ी करने के बाद लावा पूजने और पीले चावल, हल्दहाथ, भट्टीपूजन, बान-बनौरी, मूंगधना आदि नेगचार विधिविधान से किये गये।
सालासर में वर पक्ष के यहाँ चाक-भात मेल व निकासी होने के बाद बारात ने रुल्याणी के लिए प्रस्थान किया। दोपहर ढलते-ढलते बारात रुल्याणी पहुँच गयी। ऊंटगाड़ियों की लम्बी कतार थी। आगे-आगे बग्घी में वर के साथ पं. खींवारामजी और सालासर के ठाकुर सालमसिंहजी थे। बारात की शोभा देखने स्त्री-पुरुषों और बच्चों की भीड़ लग गयी थी। बारात जनवासे पहुँची। स्वागतार्थ खड़े माँडेती बारातियों के स्वागत-सत्कार में जुट गए। गाँव की बेटी का विवाह था सो पूरा गाँव एकजुट होकर व्यवस्था में लगा हुआ था।
जनवासे से वरपक्ष की ओर से नाई बारात पहुँचने की बधाई देने क्वारे माँडे के नेग में कन्या के घर आया। वह साथ में लाल-पीला पाठा, लाल कपड़ा, नाल, हरी डाली और प्यावड़ी लाया था। उसे नेग देकर थांब रोपा गया।
लच्छीरामजी ने समाज के प्रमुख व्यक्तियों, परिवारजनों व रिश्तेदारों के साथ कोरथ के लिए प्रस्थान किया। इधर घर में कन्या का श्रृंगार किया जाने लगा। भात के बाद कन्या की मामी द्वारा घरुआ दिया गया था।
बारात ढुकाव के लिए कन्या के घर की ओर प्रस्थान कर चुकी थी, इसलिए स्त्रियाँ ढुकाव की तैयारी में जुट गयीं। गाजे-बाजे के साथ वर ने कन्या के घर पहुँच कर तोरण मारा। एक तरफ बारात के स्वागत के बाद भोजन की प्रक्रिया चल रही थी दूसरी तरफ फेरों की तैयारी शुरू हो गयी। फेरों के बाद कंवरकलेवा, सिरगूँथी, आंजला, वधु की गोदभराई, सजनगोठ, पहरावनी, फेरपाटा आदि सब नेगचार आनन्द उल्लास से सम्पन्न हुए।
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वर-वधू को विदा करने का समय आया तो मोहनदास का धीर-गम्भीर हृदय भी पिघलने लगा। माता-पिता के लिए तो धैर्य की परीक्षा की घड़ी थी। उन्होंने हृदय में उमड़ते भावना के वेग को बड़ी कठिनाई से नियन्त्रित कर रखा था। यही स्थिति भाईयों, भाभियों व अन्य माँडेतियों की थी। कान्हीबाई विदा होने लगी तो किसी का भावावेग पर नियन्त्रण न रहा। आँसुओं और हिचकियों के बीच विदाई-गीत गाती हुई महिलाओं, माता-पिता, भाई-भाभियों के गले मिलकर कान्ही वर के साथ विदा हुई। बारात के प्रस्थान करते ही घर वालों के धैर्य का बाँध टूट गया। सब आँसू बहाते इधर-उधर निढाल पड़े थे। कौन किसे समझाये।
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कान्हीबाई के विवाह के बाद मोहनदास प्रायः आत्मलीन रहने लगे थे। वे तेजी से साधनामार्ग पर बढ़ रहे थे। बीड़ में साथी ही उनकी गायों की देखभाल करते। वे तो ध्यानमग्न ही रहते।
रक्षाबन्धन पर्व के दिन मन ध्यान में कम लगता था। रह-रह कर कान्हीबाई की याद आती। उन्हें बचपन से अब तक की राखी के त्यौहार की खुशियाँ याद आतीं। जब वे छोटे से थे तो बाई उनके लिए सबसे सुन्दर एक छोटी-सी राखी बनाती। उस राखी में वह अपना सारा कला-कौशल उड़ेल देती थी। बाई बड़े प्रेम से मोहन को राखी बान्धती और छोटी-सी गुड़ की डली उसके मुँह में दे देती। मोहन को गुड़ से ज्यादा बहन के प्रेम की मिठास में आनन्द आता था। बड़े भाई कमाते थे। कुछ-न-कुछ राखी का नेग जरूर देते। मोहन क्या देता ? वह राखी बँधवा कर एकटक बाई की आँखों में झाँकता रह जाता। बाई लपक कर मोहन को गोद में उठाकर चूम लेती। मोहन कलाई में बँधी राखी को देख-देखकर नाचता-कूदता फिरता। कान्ही उसके आनन्द उल्लास को ही राखी का नेग मान लेती थी।
राखी का नेग न दे पाने की कसक मोहन के मन में बनी रहती। भाई नेग के लिए पैसे मोहन के हाथ में देते पर वह न लेता, न माँ से न पिताजी से। उसके मन में एक ही तरंग थी। मेरी राखी सबसे अनोखी होती है। मैं सबसे अनोखा ही नेग दूँगा। पर उसके पास देने को क्या था, सिवा हृदय के। अपने मन की बात उसने सदा मन में ही रखी। क्या देना है, यह वह कभी न समझ पाया। एक बार तो वह राखी के दिन खेत में जा कर पकी हुई ककड़ी-मतीरी तोड़ लाया और बाई को राखी के नेग में दे दी। सब हंस पड़े, सिवाय बाई के। वह उसकी मनः स्थिति समझती थी। उसने झपट कर उसे गले लगा लिया था। अब अतीत की ये बातें याद आतीं तो मोहनदास की आँखों से अनजाने में एक-दो आँसू लुढक पड़ते। ऐसे उदासी के क्षणों में बचपन मित्र बाल्या न जाने कहाँ से आ धमकता था। वह हाथ पकड़कर उन्हें उठा लेता और कुश्ती लड़ने लगता। मोहनदास भी यादों के भँवरजाल से निकलकर उसके साथ कुश्ती लड़ने लगते। उन्हें बाल्या की संगति अच्छी लगती थी। उनके मन में उसके प्रति अनाम सी चाहत पैदा हो गयी थी।
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भगवान के विरह की व्याकुलता एक ज्वाला है, जो जीवन को तपा कर खरे सोने की तरह उज्ज्वल बना देती है। मोहनदासजी के हृदय में भगवत्प्रेम की व्याकुलता भड़क उठी थी। हनुमानचालीसा के पाठ करते-करते मन में बेचैनी भरी उत्कण्ठा होती कि आज अवश्य श्री हनुमानजी के दर्शन होंगे। पर ध्यानावस्था में बालाजी के स्थान पर वे ही सन्त प्रकट होते, तो वे अधीर हो जाते। वे उलाहना देते हुए कहते – हे बालाजी महाराज ! आप मुझे क्यों इतना तरसा रहे हैं ? आप तो गुरु हैं मेरे। गुरु शिष्य के प्रेम की इतनी कठोर परीक्षा लेते हैं क्या ? आपके दर्शन के बिना मेरा एक-एक क्षण वर्ष के समान बीत रहा है। फिर एक चौपाई में हृदय की सारी भावना उड़ेल कर विह्वल स्वर में मन-ही-मन पुकारने लगते –
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं।
आँखों से आँसू झरते देख कर साथी ग्वाले उन्हें झकझोर कर उठा देते। वे मोहन की पूजा के तरीके से बड़े हैरान थे। पूजा करते-करते भी कोई रोता है भला ? पर वास्तविक पूजा का रहस्य वे भोले ग्वाले समझते भी कैसे ? यह रहस्य तो बड़े-बड़े पण्डितों को भी समझ में नहीं आता।
एक दिन मोहनदास ने हठ ठान लिया। दर्शन करके ही उठूँगा। दिन ढलने लगा तो ग्वाले चलने की तैयारी करने लगे। मोहनदास बोले – भाईयों ! आप मेरी गायें भी ले जाओ। मैं तो आज बालाजी के दर्शन करके ही उठूँगा। जब साथियों के बहुत समझाने पर भी न माने तो विवश होकर वे मोहनदास की गायों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े।
मोहनदास की व्याकुलता चरम सीमा पर थी। बन्द आँखों से आँसू बह रहे थे। शरीर की तनिक भी सुधबुध न थी। तभी उनकी बन्द आँखों को प्रकाश का आभास हुआ। आँखें खोली तो देखा कि वे ही सन्त सामने खड़े हैं, जिनके दर्शन ध्यानावस्था में होते थे। पर आज उनका शरीर प्रकाशमान था। शरीर से दिव्य ज्योति की किरण निकल रही थी। देखते-ही-देखते सन्तजी ने श्रीहनुमानजी का रूप धारण कर लिया। मोहनदासजी हर्ष से गद्-गद् हो उनके चरणों में लोट गये। प्रेम के आंसुओं से गला रुँध जाने के कारण मुख से वाणी नहीं निकल पा रही थी, पर श्री बालाजी तक अपनी भावना पहुँचाने के लिए वाणी की जरुरत पड़ती ही कहाँ है। वे तो हृदय की भाषा समझते हैं। उस भाषा प्रत्येक अक्षर उन तक पहुँच जाता है और वे दयालु हृदय के उन भावों को ग्रहण कर लेते हैं।
श्रीबालाजी बोले – वत्स ! उदास क्यों हो ? तुम प्रभु श्रीराम के कृपापात्र हो, इसलिए मुझे परमप्रिय हो। तुमने तो समझदार होने पर मुझे गुरुरूप में अपनाया, पर मैंने तो तुम्हें तभी अपना लिया था जब तुम निरीह शिशु थे। मैं बार-बार तुम्हारे पास आता रहा हूँ, कभी बाल्या के रूप में तो कभी बालानन्द के रूप में।
मोहनदास भावविह्वल थे। भावावेग से जीभ स्तम्भित थी। प्रार्थना करना भी उनके वश की बात नहीं थी। ऐसी भावसमाधि की दशा में वाणी भी भक्त और आराध्य के बीच आकर उनकी अन्तरंगता में बाधक नहीं बनती। मोहनदास केवल अपलक दृष्टि से श्रीबालाजी को निहार रहे थे। तभी भाव का आवेग उमड़ा तो आँखों से आँसू उमड़ पड़े। आँसू पोंछे तो देखा कि श्रीबालाजी पुनः सन्तरूप में आ गए थे।
मोहनदास के मन में भावना उठी – श्रीबालाजी को भोग लगाना चाहिए। माँ ने दोपहर के भोजन के लिए खिचड़ी साथ में भेजी थी। मोहनदास को मोठ-बाजरे की खिचड़ी बहुत पसन्द थी। कभी-कभार उनकी इच्छा होती तो वे आग्रहकर मोठ-बाजरे की खिचड़ी बनवा लेते। आज वे खिचड़ी ही लाये थे।
मोहनदास ने झोले से खिचड़ी का पात्र निकाला और काँसे के कटोरे में खिचड़ी डालकर ऊपर शक्कर बुरकाई और खिचड़ी आरोगने के लिए अनुरोध करने लगे। श्रीबालाजी उनकी बालसुलभ मनुहार से गद्-गद् हो गए। उन्होंने खिचड़ी का भोग लगाया। इस खिचड़ी का स्वाद ठीक वैसा ही था, जैसा कर्माबाई की खिचड़ी, विदुरपत्नी और भिलनी के बेरों में था।
खिचड़ी का भोग आरोगकर आचमनकर श्रीबालाजी मोहनदास को परावाणी के ध्यान का उपदेश देते हुए कहने लगे कि तुम रामनाम जपते हो। परावाणी ही आदि रामनाम है। परमात्मा श्रीराम ही जीवमात्र के परमपिता है। जिस प्रकार मेले में भटका हुआ बालक पिता की पुकार को सुनकर आवाज के सहारे अपने पिता तक पहुँच जाता है उसी प्रकार परावाणी के सहारे आगे बढ़ने पर उसके प्रतिपाद्य परमात्मा पहुँचा जा सकता है। यह परावाणी परमात्मतत्त्व से उठकर मनुष्य की नाभि में स्पन्दित होती है। इसे सुनने का अभ्यास करो। निरन्तर अभ्यास से मन मौन होगा तभी इसे सुन सकोगे। भगवान श्रीराम की शरणागति ही सर्वश्रेष्ठ साधना है और सेवा सर्वश्रेष्ठ धर्म है। सब प्राणियों को भगवान श्रीराम का ही साकार रूप मान कर उनकी सेवा करते रहो। इसके बाद सन्तवेषधारी श्री बालाजी ने मोहनदास को षडक्षर मन्त्रराज की दीक्षा देकर गले में तुलसी की कण्ठी बाँध दी तथा प्रपत्ति-तत्त्व का उपदेश दिया। उन्होंने कहा कि अभी घर नहीं त्यागना है। उचित समय पर उसका संकेत मिल जाएगा। इसके बाद बालाजी अन्तर्धान हो गये।
उधर ग्वालों ने गायें मोहनदास के घर पहुँचाकर कहा कि, वह तो बीड़ की जांटी के नीचे बैठा है। बार-बार समझाने पर भी नहीं आया। चिन्तित होकर लच्छीरामजी ने पुत्र मनसाराम के साथ बीड़ की ओर प्रस्थान किया। गाँव से बाहर निकलते ही सामने से आते मोहनदास दिखाई पड़े। वे भावोन्माद की दशा में थे। उनकी आँखों में विलक्षण चमक थी।
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पं. लच्छीरामजी गर्भवती कान्हीबाई को पीहर ले आये थे। माँ की इच्छा थी कि कान्ही का जापा पीहर में ही हो। कान्ही के पुत्र का जन्म हुआ तो घर में खुशियों की लहर दौड़ गयी। हर्षित नानी ने थाल बजाया। महिलाएँ आ-आकर बधाई देने लगीं। बच्चे का नाम उदय रखा गया। दो महीने बाद दामाद पं. सुखरामजी कान्ही को ससुराल ले गये तो एक दिन शुभ मुहूर्त में पं. लच्छीरामजी छूछक का दस्तूर करने प्रियजनों के साथ सालासर गये। छूछक का दस्तूर हर्षोल्लास से सम्पन्न हुआ।
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वर्षा हो गयी थी। ग्वाले अपने पशुओं को अब अपने-अपने खेत में ही जाने लगे थे। मोहनदास गायों को लेकर घर से निकले तो उनके पैर बीड़ की ओर ही उठ पड़े। ध्यान की खुमारी में वे बीड़ की ओर ही चल पड़े थे। गायें भी उनके पीछे-पीछे चल रही थीं। बीड़ में पहुँचकर वे जांटी के नीचे बैठकर ध्यानस्थ हो गये। गायें चरने लगीं। मोहनदास अकस्मात् ध्यान की गहराई में उतरने लगे। उन्हें लगा जैसे वे किसी असाधारण यात्रा पर चल पड़े हों। मन की यह कैसी अद्भुत अन्तर्यात्रा थी। दृश्य जगत् अदृश्य हो गया था। देह का भी आभास नहीं था। केवल नाभि का स्पन्दन अनुभव हो रहा था। यह स्पन्दन भी क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म होता चला गया। सहसा समग्र चेतना सूक्ष्म ध्वनि में लीन हो गयी। यह अनाहत ध्वनि थी, परावाणी का अलौकिक स्पन्दन, आदिरामनाम की अभौतिक अनुभूति। आँखें बन्द होने पर भी वे सबकुछ देख रहे थे। वहां सूर्य का प्रकाश नहीं था, पर अन्धकार भी नहीं था। केवल स्वतः जगत् था और वे स्वयं थे। क्या यह स्वयं से साक्षात्कार था ? तभी समग्र प्रकाश साकार विग्रह के रूप में घनीभूत होने लगा और उनकी दिव्यदृष्टि नीलकमल के समान सुकोमल श्याम-शरीर वाले किरीट हार भुजबन्ध आदि से विभूषित तथा अपनी शक्ति श्रीजानकीजी के सहित दिव्य सिंहासन पर विराजमान भगवान श्रीराम की मनोहर झाँकी के दर्शन करने लगी। प्रभु के चरणनख से निकली दिव्य प्रकाशमयी मनोहर ज्योति मोहनदास को अपनी आभा से नहला रही थी। चरणों में विराजमान श्री हनुमानजी श्रीरामनाम का संकीर्तन कर रहे थे। उनकी संकीर्तन-ध्वनि सुनने में ठीक वैसी ही थी जैसी उन्होंने अभी-अभी परावाणी सुनी थी।
वर्षा से बीड़ की घास हरी-भरी हो गयी थी। नयी ताजा घास के लोभ में आगे बढ़-बढ़ कर चरती हुई गायें बीड़ से शाहपुरा की तरफ बाहर निकलकर एक खेत में घुस गयीं। खेत का मालिक किसान गायों को घेरकर शाहपुरा ले गया। उसने फाटक के चौकीदार को कहकर गायों को फाटक में बन्द करा दिया, जो आवारा पशुओं को कैद में रखने के लिए बनाया गया था।
मोहनदास तो दुनिया से बेखबर थे पर श्री बालाजी सब देख रहे थे। फाटक के चौकीदार के कानों में एक आवाज गूँजी – ‘गायों को बीड़ में पहुँचा दो।’ उसे लगा कि यह मन का वहम है। पर गूँज क्रमशः तेज होती गई। जब स्थिति असह्य हो गयी तो उसने घबराकर गायों को नौकर के साथ बीड़ में भिजवा दिया। नौकर गायों को बीड़ में ले जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगा कि ये गायें किसकी हैं। तेज आवाज सुनकर मोहनदास भांग हुआ। वे दौड़ते हुए उसकी ओर लपके। नौकर ने गायों को सम्भालकर रखने के लिए समझाया और चला गया। मोहनदास उसकी बात को समझने का प्रयास करते हुए गायों को लेकर गाँव की ओर चल पड़े।
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एक दिन मोहनदास गायों को बीड़ में ले जाने के लिए खोलने लगे तो माँ ने मना करते हुए कहा – आज बाहर नहीं जाना है।
क्यों ? मोहनदास ने पूछा।
तुम्हारे लिए एक रिश्ता आया है। लड़की वाले तुम्हें देखने आ रहे हैं।
‘नहीं कराना मुझे विवाह, मैं ब्रह्मचारी रहूँगा।’ मोहनदास ने तुनक कर कहा तो माँ मन ही मन उसकी इस भावभंगिमा पर रीझ कर मुस्कुराने लगी। उसे लगा कि मोहनदास विवाह की बात से शरमा गया है। वह कुछ नहीं बोली और घर के काम में जुट गयी। मोहनदास विवाह के चक्रव्यूह से बचने का उपाय सोचने लगे।
जब मेहमान घर आए तो मोहनदास घर से गायब थे। भाईयों ने आस-पड़ौस, खेत, बीड़ सब छान मारे, पर वे न मिले। मेहमानों के लौट जाने के बाद शाम को घर लौटे तो खूब डाँट पड़ी।
मोहनदास को अब घर से बाहर रहना ज्यादा अच्छा लगता था। वे जल्दी ही कलेवा कर गायें खोलकर बीड़ में ले जाते। माँ से दोपहर का खाना बँधवा लेते और सांयकाल ही घर लौटते। घर पर बने गायों के बाड़े में एक झोंपड़ी थी। रात में उसी में सोते, कहते यहाँ सोने से गायों की देखभाल रहेगी। पिता जानते थे कि यह उसी दिशा में आगे बढ़ रहा है, जिसका भाग्यलेख है। माँ मोहन के व्यवहार से हैरान और परेशान थी। बेटा धार्मिक प्रवृत्ति का हो, उसमें आध्यात्मिक संस्कार हों, इतना तो ठीक है, पर वह गृहस्थी से विमुख रहे, यह माँ के लिए असह्य है। माँ का कलेजा ऐसा ही होता है। वह तो बेटों की सात पीढ़ियों के सुख की कल्पना और कामना करती है। बेटा कुंआरा रहे यह उसे कैसे बर्दाश्त हो ?
आजकल तो माँ मोहन के पिता पर भी नाराज रहती थी। वे इतने ज्ञानी हैं। सब उनसे सलाह लेते हैं, पर वे अपने बेटे को नहीं समझा सकते। चार-पाँच जगहों से रिश्ते आ गये किन्तु मोहन की असहमति के कारण सबको मना करना पड़ा।
अभी कल ही एक रिश्ता लौटाना पड़ा तो माँ फट पड़ी- ‘कोई कुछ नहीं सोचता-समझता। मोहन के पिता ! आप भी बच्चे के साथ हो गये। हैं वह तो भोला और नादान है। खुद नहीं समझता तो उसे समझाना चाहिए। ‘ यों ही चिन्ता करते-करते माँ ने खाट पकड़ ली। उसे अपने लाड़ले मोहन का भविष्य सूना-सूना दिखता था। उसकी एक ही जिद थी, मोहन का विवाह करना ही होगा।
पिता का भावुक हृदय भी उनके विवेक पर हावी हो गया। वे ज्योतिष के भविष्यफल को भूलकर मोहनदास को प्यार से समझाने लगे – बेटा ! अब तुम बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गए हो। उम्र के हिसाब से समझदार होना चाहिए। विवाह का एक समय होता है। वह समय बीत जाने पर विवाह नहीं होता। हमारे रिश्तेदारों और हितैषियों के द्वारा तुम्हारे विवाह के प्रस्ताव लाये जा रहे हैं, पर तुम्हारे व्यवहार के कारण हमें नीचा देखना पड़ता है। देखो ! सेवाभक्ति और शरणागति के लिए गृहस्थी से विमुख रहने की क्या जरूरत है ? गृहस्थी में रह कर तुम बेहतर ढंग से इनका पालन कर सकते हो।
मोहनदास बोले – पिताजी ! आप का कथन युक्ति युक्त है, किन्तु मुझे वैवाहिक जीवन में तनिक भी आकर्षण नहीं है। मेरे लिए स्त्री-पुरुष में अभेद हो गया है, क्योंकि मैं देहदृष्टि से सोच ही नहीं सकता। जिसके हृदय का कामबीज दग्ध हो गया हो, उसका गृहस्थी में प्रवेश क्या आपकी दृष्टि में उचित है ? मुझे नहीं पता कि मेरे लिए प्रभु का विधान क्या है ? पर मुझे लगता है कि प्रभु मुझे अपने विधान के अनुरूप ही चला रहे हैं।
माँ आज एक नये ही मोहन को देख रही थी। हृदय में उमड़ते भावों को वह व्यक्त नहीं कर पा रही थी, किन्तु उसकी आँखें सब कुछ कह रही थीं। मोहनदास पिताजी के पास से उठ कर माँ के चरणों के पास बैठ गए। माँ ने अपने लाडले को कलेजे से लगा लिया, पर कुछ बोल नहीं सकी।
‘माँ ‘ मोहनदास ने ही मौन को भंग किया। वे कातर स्वर में कहने लगे – ‘मैं जनता हूँ माँ ! तुम मेरे लिए दुःखी हो। इसके लिए मैं लज्जित हूँ, किन्तु तुम जिस राह पर मुझे ले चलना चाहती हो, ईश्वर ने मुझे उसके लिए नहीं बनाया है। मैं अपनी मंजिल को तो नहीं जानता, पर मेरी राह वही है जिस पर मैं चल रहा हूँ।’
माँ ! मैं भक्ति की राह पर चलना चाहता हूँ। मुझे आज्ञा दो माँ, मुझे उसी राह पर चलने की अनुमति दो, जो प्रभु ने मेरे लिए नियत कर रखी है। मोहन ने अपना सिर माँ के चरणों में रख दिया। उसके आँसुओं ने माता के चरणों को भिगो दिया और माता के आँसुओं ने उसके सिर को भिगो दिया।
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गायों को चराने के लिए बीड़ में ले जाना, वहाँ हनुमानचालीसा के पाठ, ध्यान और भगवन्नाम का स्मरण करना मोहनदासजी की दिनचर्या के प्रमुख कार्य हो गए थे। गायों को तो साथी ग्वाल-बाल ही सम्भालते थे। बालाजी समय-समय पर दर्शन देकर उन्हें साधनामार्ग पर आगे बढ़ाते थे। जिस दिन मोहनदासजी अपनी पसन्द की मोठ-बाजरे की खिचड़ी लाते, उस दिन तो बालाजी अवश्य पधारते। मोहनदासजी प्रेमपूर्वक खिचड़ी का भोग लगाते और बालाजी आनन्द से आरोगते। बालाजी ने भक्त की रुचि से अपनी रुचि को एकाकार कर लिया था। यों भी भगवान की अपनी रुचि होती ही कहाँ है। समर्पित अनन्य भक्त उन्हें जिस प्रकार रखते हैं, वे उसी प्रकार रह लेते हैं। दूसरी तरफ भक्त भी अपने आपको भगवान की मर्जी पर छोड़ देते हैं। भक्त और भगवान की यह लीला अपरम्पार है।
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ज्येष्ठ का महीना। पूर्णिमा की रात। चाँद अपनी उजली चाँदनी से धरती के हृदय को शीतल कर रहा था। अकस्मात् दक्षिण दिशा से काले बादलों की एक घटा उमड़ती हुई उठी। रह-रह कर बिजली चमक रही थी। सहसा एक बादल ने तेजी से आगे बढ़कर चाँद को ढक लिया। चाँदनी रात अन्धेरी हो गयी। कुछ ही देर में वर्षा होने लगी।
गायत्री ने अपने आँगन में एक बेल लगायी थी। आसमान से बरसती बून्दें बेल के पत्तों पर गिरकर नीचे फिसल जातीं। टप-टप की हल्की आवाज आती। ऐसा लगा मानो चन्द्रदर्शन से वंचित बेल आँसू बहा रही हो।
गायत्री का हृदय रात से ही बेचैन था। अनहोनी की अज्ञात आशंका उसके हृदय को कचोट रही थी। वह रात भर करवटें बदलती रही, पर बेचैनी का कोई कारण उसे समझ में नहीं आ रहा था। मोहन की नियति को तो उसने स्वीकार कर लिया था। फिर यह उद्वेग ?
दोपहर के चढ़ते सूर्य की तेज धूप से बारिश की ठण्डक का असर समाप्त हो गया था। अचानक दरवाजा खटखटाने की आवाज आई। पण्डितजी ने दरवाजा खोला। आगन्तुक सालासर का था। उसने अपना ऊँट घर के बाहर ही एक नीम की जड़ से बाँध दिया था। वह अपनी बात दरवाजे से बाहर ही कह देना चाहता था। उसने अटकते-अटकते अपनी बात पूरी की। उसके शब्द पिघले हुए शीशे की तरह पण्डितजी के कानों में उतर गये। आँखों के सामने अन्धेरा सा छा गया। आगन्तुक सुखरामजी की मृत्यु का समाचार लाया था। उसने हाथ जोड़े और बिना कुछ बोले, बाहर निकलकर ऊँट पर सवार हो लौट पड़ा।
पण्डितजी से यह समाचार सुनते ही गायत्री बेसुध हो गई। उसका माथा दीवार से टकरा कर सुन्न सा हो गया। नेत्र फटे-के-फटे रह गए। श्वास भी जैसे थम गया था। अचानक उसके मुँह से चीत्कार फूटा और फिर आँखों से आँसू और कण्ठ से क्रन्दन एक साथ बह निकले।
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सुखरामजी की पन्द्रहवीं की रस्म तक लच्छीरामजी सालासर ही रहे। फिर महन्तजी से आज्ञा ले कर वे कान्ही और उदय को रुल्याणी ले आये। खींवारामजी की मृत्यु के बाद महन्तजी ही खानदान में एकमात्र बुजुर्ग थे।
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कान्हीबाई को घर आए चार महीने हो गये थे। उदय अभी पाँच वर्ष का ही था। वह गुमसुम ही रहता था। विपत्ति ने इस घर का रास्ता देख लिया था। कान्ही के आने के बाद एक-एक माह के अन्तराल से उसके माता और पिता दोनों की मृत्यु हो चुकी थी। कान्हीबाई का खाना-पीना छूट सा गया था। बड़ी कठिनाई से दो-चार निवाले ले पाती। एक दिन मोहनदास समझाते हुए बोले – बाई ! उदय की ओर देखो। इसके लिए अपने जीवन की रक्षा करो। अब यही जीने का सहारा है। कान्ही ने मोहन की गोद में सुबकते उदय को देखा। उदय का चेहरा पीला पड़ गया था। बेटे की यह दशा देख कर उसका हृदय इस प्रकार ऐंठने लगा, जैसे उसे गीले कपड़े की तरह निचोड़ा जा रहा हो।
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रात घिर चुकी थी, पर आँगन में चारपाई पर लेटी कान्हीबाई की आँखों में नींद नहीं थी।
‘बाई’ ! उसके कानों में मोहनदास की आवाज पड़ी। वे पास की चारपाई पर उदय के साथ लेटे थे।
बाई ! सोयी नहीं ? मोहनदास पूछ रहे थे।
‘हूँ ‘ आत्मलीन कान्ही के कण्ठ से हल्की सी आवाज निकली। उसने मोहन की ओर देखा। मोहनदास ने चाँदनी में चमकते उसके आँसू को देख कर उसकी मनः स्थिति समझ ली। बाई चुपचाप चाँद को पार करते बादलों को देखने लगी।
बाई ! जीवन में परिस्थितियाँ इन बादलों की तरह ही अस्थिर होती हैं। यही परिवर्तन ही जीवन है।
कान्ही मौन थी, पर उसका चिन्तन जारी था।
बाई ! तुम कुछ सोच रही हो ?
हाँ भैया ! उदय के बारे में सोच रही थी। उसे सालासर से आये बहुत दिन हो गए। अब वहाँ जाना चाहिए। कान्हीबाई ने कहा। उसने भावी जीवन की दिशा तय कर ली थी।
पर उदय अभी छोटा है। यहाँ रहना उसके लिए अधिक सुविधापूर्ण रहेगा।
उसे सुविधा में नहीं संघर्ष में पलने दो भैया, कान्ही का स्वर गम्भीर और निश्चयात्मक था। उदय को जीवन की पगडंडी परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए स्वयं तैयार करनी चाहिए। उसका यह समय संघर्ष यात्रा में उतरने का है, सुविधा भोगने का नहीं। उसे मेरी कमजोरी नहीं संबल बनना है। यहाँ तो वह विधवा बेटी की अनाथ सन्तान के रूप में सबकी सहानुभूति का पात्र रहेगा। सब उसे कान्ही का बेटा ही कहेंगे न। मैं चाहती हूँ कि उसे सब अपने पिता के नाम से जानें। वह अपनी पैतृक वंश-परम्परा के गौरव को सुनता समझता बड़ा हो। ऐसा सालासर में ही हो सकता है। रुल्याणी उसकी शरणस्थली है। कर्मस्थली तो सालासर ही है।
मोहनदास मौन थे। कान्ही ने चाँद की रौशनी में देखा कि मोहन की आँखें बन्द हैं, पर वह सोया नहीं है।उसके चेहरे पर दृढ़ निश्चय के भाव थे। ऐसा लग रहा था जैसे उसने कोई संकल्प कर लिया हो। कान्हीबाई ने भी आँखें बन्द कर ली।
सुबह उठते ही कान्हीबाई ने अपना निश्चय बड़ी भाभी को बता दिया था। भाभी असमंजस में थी। उसने परामर्श के लिए पास-पड़ौस की बुजुर्ग महिलाओं को बुला लिया था। सबने कान्हीबाई का समर्थन करते हुए कहा कि उदय के हित के लिए यही करना उचित है, पर सालासर में संरक्षक के बिना माँ-बेटे को समस्याओं का सामना करना पड़ेगा। इस समस्या का समाधान किसी के पास न था, सिवाय मोहनदास के। जब उन्होंने बाई से साथ सालासर रहने का निश्चय बताया तो सब संतुष्ट हो गये। बड़ा भाई मनसाराम ऊँटगाड़ी में आवश्यक सामान के साथ कान्हीबाई मोहनदास और उदय को सालासर छोड़ आया।
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Where is the temple of our kuldevi mahagauri ?