हमारे समाज के बुद्धिजीवी वर्ग में सन् 1855 से 1860 के समय में अपने समाज की जड़ें, सही पहचान तथा परिचय के विषय में एक आत्मचिन्तन की लहर आयी। ऐसा लगने लगा कि ढूसर शब्द हमारी सही पहचान तथा परिचय नहीं है। ढूसर शब्द का हमारे साथ जुड़े होने से हमारे समाज की पहचान के विषय में प्रश्नचिह्न लग रहे थे। हमें स्थापित करना पड़ रहा था कि हम ब्राह्मण हैं वैश्य नहीं। ऐसे समय में हमारे समाज के संस्कृत के विद्वानों ने “च्यवन कुल दीपिका” व “भृगु कुल दीपिका” लिखी। इन पुस्तकों में भृगुवंशी समाज और उनसे सम्बंधित तीर्थों का विवरण था। यह पुस्तक हमें जोड़ रही थी – नारनौल के पास स्थित (1) भृगु तीर्थ (2) वधूसरा तीर्थ तथा (3) ढोसी पहाड़ पर स्थित महर्षि च्यवन तीर्थ से। ऐसे समय में हमारे समाज ने सामूहिक रूप से एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया और सदा के लिए ढूसर शब्द हटाकर “भार्गव” उपनाम अपने साथ जोड़ लिया।
भार्गव समाज के इन तीर्थों का विवरण महाभारत ग्रन्थ में मिलता है। आज की भौगोलिक स्थिति और महाभारत वर्णित इन तीर्थों का विवरण और लोक परम्परा में एक सी समानता है। महाभारत में वर्णन के आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि भार्गव गोत्र के सभी ब्राह्मण जो उत्तर से दक्षिण में केरल तक फैले हुए हैं सबका उद्गम स्थल यह प्राचीन तीर्थ स्थल है और हमारा भार्गव समाज उस वृहद् भार्गव समाज का एक अंग है। इन तीर्थ स्थलों को पुनर्स्थापित करने का प्रयास INTACH तथा हरियाणा सरकार के सहयोग से प्रारम्भ हो चुका है। इन प्रयासों की श्रृंखला में जानकारी फैलाने के लिए यह लेख है। आशा है इन प्रयासों को आगे बढ़ाने में आप सहयोग देंगे।
– स्व. ओमप्रकाश भार्गव
नारनौल
भार्गव समाज के तीर्थ स्थलों का संगम नारनौल शहर जिला महेन्द्रगढ़ का मुख्यालय है। यह शहर दक्षिणी हरियाणा में देहली से 135 किलोमीटर दूर राजस्थान के झुन्झुनू जिले से लगता हुआ है। नारनौल शहर से 7 किलोमीटर प्राचीन पर्वत ढोसी है जिसका अधिकांश भाग हरियाणा में है व कुछ भाग राजस्थान की तरफ निकलता है। हरियाणा की तरफ नीचे कुलताजपुर व थाना गांव है जहाँ से सीढ़ी द्वारा ऊपर जाने का रास्ता है। राजस्थान की तरफ ढोसी गांव है जिसके पीछे दूहान नदी का पाट है। यह नदी कभी बहती हुई महेन्द्रगढ़ व चरखी दादरी के पास से होती हुई झज्जर के पास छुकछुकवास तक पहुँचती थी तथा ज्यादा पानी आने पर यह नदी नजफगढ़ झील तक पहुँचती थी।
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नारनौल शहर की स्थापना प्राचीन समय में ढोसी पहाड़ के पास वधूसरा नदी की घाटी में हुई। शुरू में यहाँ साधु सन्त रहते थे। चारों तरफ घना जंगल था। जिसमें आयुर्वेदिक जड़ी बूटियों की भरमार थी। इस क्षेत्र में वैदिक समय में दो विशाल सदानीरा नदियाँ बहती थी। एक वधूसरा, जो दक्षिणी हिस्से में ढोसी पहाड़ के पास थी, दूसरी कंसावती जो नारनौल के पूर्व में बहती हुई कोसली के पास साहबी नदी से मिल जाती है। इसके अलावा इस क्षेत्र में छोटे-छोटे नाले सुन्दर विशाल सरोवर व पानी के झरने थे। ढोसी पहाड़ वैदिक समय में आर्चीक पर्वत कहलाता था। इस पहाड़ के तीन शिखर व तीन निरन्तर बहते झरने थे। इस पहाड़ पर शिव कुण्ड, चन्द्रमा तीर्थ व सूर्य तीर्थ थे। इस पहाड़ के ऊपर एक विशाल सरोवर व चारों तरफ विभिन्न प्रकार की जड़ी बूटियाँ थी। आर्चीक पर्वत के एक हिस्से में आयुर्वेद की प्रसिद्ध औषधि शिलाजीत पायी जाती है। आर्चीक पर्वत के ऊपर चन्द्रमा तीर्थ के चन्द्रकूप के पानी में स्वास्थ्य के लिए विशेष लाभदायक क्षमता थी। महाभारत के अनुसार महर्षि च्यवन का काया कल्प अश्विनी कुमार वैद्य द्वारा आर्चीक पर्वत पर ही किया गया। प्रसिद्ध आयुर्वेदिक औषधि च्यवनप्राश का निर्माण महर्षि च्यवन के लिये किया गया।
आर्य सभ्यता के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद की रचना के समय आर्य लोग कुरुक्षेत्र से पुष्कर तक के क्षेत्र में पूरी तरह बस चुके थे। ऋग्वेद की अधिकांश रचना भी कुरुक्षेत्र से पुष्कर तक के क्षेत्र में ही हुई है। नारनौल का क्षेत्र भी कुरुक्षेत्र से पुष्कर के मार्ग पर आता है। नारनौल क्षेत्र में वैदिक काल में कई प्रसिद्ध ब्रह्मर्षि हुए जिन्होंने वैदिक मान्यताओं का निर्माण किया और ऋग्वेद की रचना में अपना योगदान दिया। इस क्षेत्र के ब्रह्मर्षियों की साधना स्थली व तीर्थ स्थल के नाम इस प्रकार से है –
- भृगु तीर्थ : महर्षि भृगु की साधना स्थली दीप्तोदक तीर्थ वधूसरा नदी के पास स्थित था। यहाँ वैदिक काल में महर्षि भृगु व माता पुलोमा निवास करती थी।
- महर्षि च्यवन तीर्थ : वैदिक समय के आर्चीक (ढोसी पहाड़) पर महर्षि च्यवन की तपोस्थली थी। यह स्थल च्यवन तीर्थ कहलाता है।
- वधूसरा तीर्थ : आर्चीक पर्वत के समीप बहती वधूसरा नदी महर्षि च्यवन के समय भृगु ऋषि की पत्नी माता पुलोमा के अश्रुरज से प्रकट हुई तथा स्वयं भगवान ब्रह्मा ने इसका नाम वधूसरा रखा। वधूसरा नदी का क्षेत्र वधूसरा तीर्थ कहलाया। वधूसरा तीर्थ स्वास्थ्यवर्द्धक क्षमताओं के लिए विख्यात था।
- वैदिक समय के महर्षि उद्दालक का आश्रम स्याणा ग्राम महेन्द्रगढ़ में था। इस आश्रम के समीप सरोवर व कदम के पेड़ों के अवशेष आज भी स्याणा ग्राम में मिलते हैं।
- वैदिक समय के महर्षि पिप्लाद की साधना स्थली बाघोत जिला महेन्द्रगढ़ में स्थित है। महाभारत में इन सघन स्थलों का वर्णन है।
-भार्गव पत्रिका से साभार
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Dear sir ji aapse ek request hai Bhriguvanshi shandilya gotra ki kulddvi ka name kya hai kyon hai bhriguvanshi shandilya gotra ki kul Devi maata please batana mujhe jai maharishi bhrigu jai bhriguvanshi parashurama jai shukrachaeya jai chyavan
आप कहां से हैं। वैसे ये तो dakot ब्राह्मण का गोत्र है और इनकी कुलदेवी मां सरस्वती है। मेरा भी यही गोत्र है।
मैं जयपुर से हूं।
जिस पुस्तको का उल्लेख आप ने किया हे वो मिल सकती हे क्या
9782429628