तपती धूप में एक पहाड़ी के नीचे छोटा सा एक पेड़। पेड़ के नीचे दो डालों से बंधा एक कपड़े का झूला और झूले में एक सोता हुआ शिशु। माँ कुछ दूर पहाड़ी पर पत्थरों को तोड़ गिट्टी बनाने के काम में लगी थी। कुछ उसकी आत्मा झोले में रहे बालक में ही लगी थी। थोड़ी देर बाद वो बालक माँ माँ करके रोने लगा जिसे सुनकर माँ दौड़ी हुई उसके पास आई। उसे झोले में निकालकर अपने आंचल से लगाया और दूध पिलाकर उसकी आंख लगने पर पुनः झोले में सुलाकर चली गई। ऐसा ही कुछ सम्बन्ध हमारे हमारी कुलदेवी माँ की पूजा से है। हमारे पूर्वजों ने (जिन्हें हम कुलपुरुष भी कह सकते है) शक्ति रूप देवी माँ की पूजा शुरू की और माँ को एक नया नाम देकर उन्हें अपनी कुलदेवी मान किया। ऐसा करने से एक कुल के स्त्री पुरुष को एक अलग पहचान तथा अपने वंश की रक्षा करने हेतु देवी मां एक अलग नाम से मिल गई। जिसकी छत्र छाया में उस वंश की पीढ़ी दर पीढ़ी वृद्धि होती रही। कुलदेवी माँ अपने वंश की वृद्धि व समृद्धि चाहती है। किन्तु यह भी अपेक्षा करती है कि उस वंश के लोग सदा उनको याद रखे और उनका गुणगान करे। ध्यान रखे की देवी माँ की शक्ति अपार है और वो अत्यन्त उदार भी है। यदि हम भी शिशुभाव से सुख-दुःख में उनकी पूजा अर्चना कर उन्हें सदा मान दे, तो निश्चित ही जीवन में आने वाले दुखों का निवारण होगा। यह तभी सम्भव होगा जब हम बालक की तरह ही शिशुभाव से कुलदेवी माँ से सम्बन्ध रखें।
जैसे शिशु माँ के आंचल में आने के बाद कोई भय, शोक या संताप नहीं रखता और माँ के अंक में निर्भय खेलता है उसी प्रकार कुलदेवी माँ महाशक्ति जगदम्बा के अंक में आने के बाद सब कष्टों से छूट जाता है। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पूज्य श्री रामकृष्ण परमहंस है। उन्हें काली माँ का विस्मरण असह्य था। माँ-माँ करते करते वो ऐसे रोमांचित हो जाते कि अश्रुप्रवाह होने लगता था। उसी अवस्था में वो समाधिस्थ हो जाते थे और माँ समाधी में उन्हें साक्षात दर्शन देकर उनसे वार्तालाप करती थी। जिससे वो अपने मन की सारी गुत्थियां सुलझा लेते थे।
‘कुलदेवी ज्ञान चर्चा संगम’ से साभार, लेखक- मथुरा प्रसाद भार्गव
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