Shirdi Sai Baba Chalisa : शिरडी साई बाबा चालीसा in Hindi
पहले साई के चरणों में ,अपना शीश नवाउं मैं,
कैसे शिरडी साई आये, सारा हाल सुनाऊ मैं ,
कौन है माता ,पिता कौन है ,यह न किसी ने भी जाना ,
कहाँ जनम साई ने धारा ,प्रश्न पहेली रहा बना ,
कोई कहे अयोध्या के ये ,रामचंद्र भगवान है ,
कोई कहता साई बाबा ,पवन पुत्र हनुमान है ,
कोई कहता मंगल मूर्ति ,श्री गजानन है साई
कोई कहता गोकुल -मोहन ,देवकी नंदन है साई ,
शंकर समझे भक्त कई तो ,बाबा को भजते रहते ,
कोई कहे अवतार दत्त का,पूजा साई की करते ,
कुछ भी मानो उनको तुम,पर साई हैं सच्चे भगवान् ,
बडे दयालु ,दीपबंधु,कितनों को दिया है जीवन दान ,
कई वर्ष पहले की घटना ,तुम्हें सुनाऊंगा मैं बात,
आया साथ उसी के था ,बालक एक बहुत सुंदर ,
आया ,आकर वहीं बस गया ,पवन शिरडी किया नगर,
कई दिनों तक रहा भटकता ,भिक्षा मांगी उसने दर-दर ,
और दिखाई ऐसी लीला ,जग में जो हो गई अमर,
जैसे -जैसे उमर बढी,वैसे ही बढती गयी शान ,
घर -घर होने लगा नगर में ,साई बाबा का गुणगान,
दिग्-दिगंत मैं लगा गूंजने ,फिर तों साई जी का नाम ,
दीन-दुखी की रक्षा करना ,यही रहा बाबा का काम,
बाबा के चरणों में जाकर ,जो कहता मैं हूँ निर्धन ,
दया उसी पर होती उनकी ,खुल जाते दुःख के बन्धन ,
कभी किसी ने मांगी भिक्षा ,दो बाबा मुझको संतान ,
एवं अस्तु तब कहकर साई ,देते थे उसको वरदान ,
स्वयम् दुःखी बाबा हो जाते , दींन -दुखी का लख हाल ,
अन्तः कारन श्री साईं का, सागर जैसा रहा विशाल ,
भक्त एक मद्रासी आया ,घर का बहुत बड़ा धनवान ,
माल खजाना बेहद उसका ,केवल नहीं रही संतान,
लगा मनाने साई नाथ को ,बाबा मुझ पर दया करो ,
झंझा से झंकृत नैया को,तुम ही मेरी पार करो ,
कुलदीपक के बिना अँधेरा ,छाया हुआ है घर में मेरे ,
इसीलिये आया हूँ बाबा ,होकर शरणागत तोरे,
कुलदीपक के ही अभाव में ,व्यर्थ है दौलत की माया ,
आज भिखारी बनकर बाबा ,शरण तुम्हारी मैं आया ,
दे दो मुझको पुत्र दान , मैं ऋणी रहूंगा जीवन भर ,
और किसी की आस न मुझको ,सिर्फ़ भरोसा है तुमपर ,
अनुनय -विनय बहुत की उसने ,चरणों में धर-करके शीश ,
तब प्रसन्न होकर बाबा ने ,दिया भक्त को यह आशीष ,
अल्ला भला करेगा तेरा , पुत्र जन्म हो तेरे घर,
कृपा रहेगी तुम पर उसकी , और तेरे उस बालक पर,
अब तक नहीं किसी ने पाया, साईं की कृपा का पार ,
पुत्र रत्न दे मद्रासी को, धन्य किया उसका संसार ,
तन-मन से जो भजे उसी का ,जग में होता है उद्धार,
सांच को आंच नही है कोई ,सदा झूठ की होती हार ,
मैं हूँ सदा सहारे उसके ,सदा रहूंगा उसका दास ,
साईं जैसा प्रभु मिला है ,इतनी ही कम है क्या आस ,
मेरा भी दिन था इक ऐसा ,मिलती नहीं मुझे थी रोटी ,
तन पर कपड़ा दूर रहा था ,शेष रही नन्ही लंगोटी,
सरिता सन्मुख होने पर भी ,मैं प्यासा का प्यासा था ,
दुर्दिन मेरा मेरे ऊपर ,दवांग्नी बरसता था ,
धरती के अतिरिक्त जगत में ,मेरा कुछ अवलंब न था,
बना भीखारी मैं दुनिया में ,दर-दर ठोकर खाता था,
ऐसे में इक मित्र मिला जो,परम भक्त साईं का था,
जंजालो से मुक्त ,मगर इस जगती में वह मुझ सा था ,
बाबा के दर्शन के खातिर ,मिल दोनों ने किया विचार ,
साईं जैसे दयामूर्ती के, दर्शन को हो गये तैयार ,
पावन शिरडी नगरी जाकर ,देखी मतवाली मूरति ,
धन्य जनम हो गया की हमने ,जब देखी साईं की सुरति,
जब से किए है दर्शन हमने ,दुःख सारा काफूर हो गया,
संकट सारे मिटे और ,विपदाओं का हो अंत गया ,
मान और सम्मान मिला ,भिक्षा में हमको बाबा से ,
प्रतिबिम्बित हो उठे जगत में ,हम साईं की आज्ञा से,
बाबा ने सम्मान दिया है ,मान दिया इस जीवन में ,
इसका ही संबल ले मैं ,हंसता जाऊंगा जीवन में ,
साईं की लीला का मेरे ,मन पर ऐसा असर हुआ ,
लगता ,जगती के कण -कण में,जैसे हो वह भरा हुआ ,
‘काशीराम’ बाबा का भक्त ,इस शिरडी में रहता था ,
मैं साईं का ,साईं मेरा ,वह दुनिया से कहता था ,
सी कर स्वयं वस्त्र बेचता ,ग्राम नगर बाज़ारों में ,
झंकृत उसकी हृदय तंत्री थी ,साईं की झंकारों में,
स्तब्ध निशा थी,थे सोये ,रजनी आँचल में चाँद-सितारे ,
नहीं सूझता रहा हाथ को हाथ तिमिर के मारे ,
वस्त्र बेचकर लौट रहा था ,हाय !हाट से ‘काशी’
विचित्र बड़ा संयोग कि उस दिन,आता था वह एकाकी ,
घेर राह में खडे हो गए ,उसे कुटिल ,अन्यायी ,
मरो काटो लूटो इसको ,यही ध्वनि पड़ी सुनाई,
लुट पीट कर उसे वहाँ से ,कुटिल गये चम्पत हो,
आघातों से मर्माहत हो ,उसने दी संज्ञा खो ,
बहुत देर तक पड़ा रहा वह ,वहीं उसी हालत में,
जाने कब कुछ होश ,हो उठा ,उसको किसी पलक में ,
अनजाने ही उसके मुंह से ,निकल पड़ा था साईं ,
जिसकी प्रतिध्वनि शिरडी में,बाबा को पड़ी सुनाई,
क्षुबध हो उठा मानस उनका, बाबा गए विकल हो ,
लगता जैसे घटना सारी ,घटी उन्हीं के सन्मुख हो,
उन्मादी से इधर -उधर ,तब बाबा लगे भटकने,
सन्मुख चीज़े जो भी आईं,उनको लगे पटकने ,
और धधकते अंगारों में,बाबा ने कर डाला ,
हुए सशंकित सभी वहाँ ,लख ताण्डव नृत्य निराला,
समझ गए सब लोग कि कोई ,भक्त पड़ा संकट में ,
क्षुभित खडे थे सभी वहाँ पर,पडें हुए विस्मय में,
उसे बचाने की ही खातिर ,बाबा आज विकल हैं,
उस की ही पीड़ा से पीड़ित उनका अंतस्तल है,
इतने में ही विधि ने अपनी ,विचित्रता दिखलाई ,
लेकर संज्ञाहीन भक्त को ,गाड़ी एक वहां आई ,
सन्मुख अपने देख भक्त को,साईं की आंखे भर आईं,
शांत,धीर,गंभीर सिंधु सा ,बाबा का अंतस्तल ,
आज न जाने क्योँ रह-रहकर ,हो जाता था चंचल,
आज दया की मूर्ति स्वयं था,बना हुआ उपचारी,
औए भक्त के लिये आज था ,देव बना प्रतिहारी ,
आज भक्त की विषम परीक्षा में,सफल हुआ था काशी ,
उसके ही दर्शन की खातिर थे,उमडे नगर -निवासी ,
जब भी और जहाँ भी कोई ,भक्त पड़े संकट में,
उसकी रक्षा करने बाबा,जाते हैं पलभर में,
युग -युग का है सत्य यह,नहि कोई नई कहानी ,
आपत्ग्रस्त भक्त जब होता,जाते ख़ुद अंतर्यामी ,
भेद-भाव से परे पुजारी ,मानवता के थे साईं,
जितने प्यारे हिंदू-मुस्लिम ,उतने ही थे सिक्ख इसाई ,
भेद -भाव मन्दिर -मस्जिद का, तोड़ -फोड़ बाबा ने डाला ,
राम रहीम सभी उनके थे ,कृष्ण-करीम -अल्लाहताला ,
घंटे की प्रतिध्वनि से गूंजा ,मस्जिद का कोना-कोना ,
मिले परस्पर हिंदू-मुस्लमान , प्यार बढ़ा दिन दूना ,
चमत्कार था कितना सुंदर ,परिचय इस काया ने दी ,
और नीम की कड़वाहट में भी ,मिठास बाबा ने भर दी ,
सबको स्नेह दिया साईं ने,सबको अन्तुल प्यार किया ,
जो कुछ जिसने भी चाहा,बाबा ने उसको वही दिया,
ऐसे स्नेह शील भाजन का,नाम सदा जो जप करे ,
पर्वत जैसा दुःख न क्योँ हो,पलभर में वह दूर टरे ,
साईं जैसा दाता हमने ,अरे नहीं देखा कोई ,
जिसने केवल दर्शन से ही ,सारी विपदा दूर गई,
तन में साईं ,मन में साईं ,साईं -साईं भजा करो ,
अपने तन की सुधि -बुधि खोकर ,सुधि उसकी तुम किया करो ,
जब तू अपनी सुधियाँ तजकर ,बाबा की सुधि किया करेगा ,
और रात दिन बाबा ,बाबा ही तू रटा करेगा ,
तो बाबा को अरे ! विवश हो ,सुधि तेरी लेनी ही होगी ,
तेरी हर इच्छा बाबा को, पुरी ही करनी होगी ,
जंगल-जंगल भटक न पागल , और ढ़ूंढ़ले बाबा को ,
एक जगह केवल शिरडी में,तू पाएगा बाबा को,
धन्य जगत में प्राणीं है वह,जिसने बाबा को पाया,
दुःख में सुख में प्रहार आठ हो ,साईं का ही गुण गया ,
गिरें संकटों के पर्वत ,चाहे बिजली ही टूट पड़े ,
साईं का ले नाम सदा तुम, सन्मुख सब के रहो अडे ,
इस बुढे की करामात सुन,तुम हो जाओगे हैरान ,
दंग रह गए सुनकर जिसको ,जाने कितने चतुर सुजान ,
एक बार शिरडी में साधू ,ढोगी था कोई आया ,
भोली -भाली नगर निवासी ,जनता को था भरमाया ,
जड़ी -बूटियां उन्हे दिखाकर ,करने लगा वहाँ भाषण ,
कहने लगा सुनो श्रोतागण घर मेरा है वृन्दावन ,
औषधि मेरे पास एक है ,और अजब इसमें शक्ति ,
इसके सेवन करने से ही ,हो जाती दुःख से मुक्ति,
अगर मुक्त होना चाहो ,तुम संकट से,बीमारी से ,
तो है मेरा नम्र नेवेदन ,हर नर से नर -नारी से,
लो खरीद तुम इसको इसकी ,सेवन विधियाँ हैं न्यारी,
यधपि तुच्छ वस्तु है यह ,गुण उसके हैं अतिशय भारी,
जो हैं संतति हीन यहाँ यदि ,मेरी औषधि को खाएं ,
पुत्र -रत्न हो प्राप्त ,अरे और वह मुंह माँगा फल पाएं ,
औषधि मेरी जो न खरीदे ,जीवन भर पछताएगा,
मुझ जैसा प्राणी शायद ही ,अरे यहाँ आ पायेगा ,
दुनिया दो दिन का मेला है , मौज शौक तुम भी कर लो ,
गर इससे मिलता है ,सब कुछ ,तुम भी इसको ले लो ,
हैरानी बढती जनता की,लख इसके कारस्तानी ,
प्रमुदित वह भी मन-ही-मन था,लख लोंगों की नादानी ,
ख़बर सुनाने बाबा को यह ,गया दौड़कर सेवक एक,
सुनकर भ्र्कुटी तनी और विस्मरण हो गया सभी विवेक ,
हुक्म दिया सेवक को,सत्वर पकड़ दुष्ट को लावो ,
या शिरडी की सीमा से ,कपटी को दूर भगावो,
मेरे रहते भोली-भली ,शिरडी की जनता को,
कौन नीच ऐसा जो,साहस करता है छलने को,
पल भर में ही ऐसे ढ़ोगी,कपटी जीव लुटेरे को,
महानाश के महागर्त में ,पहुँचा दूँ जीवन भर को,
तनिक मिला आभास मदारी ,क्रूर ,कुटिल अन्यायीको,
काल नाचता है अब सिर पर ,गुस्सा आया साईं को ,
पलभर में सब खेल बंद कर,भागा सिर पर रखकर पैर ,
सोच रहा था मन-ही -मन ,भगवान नहीं है क्या अब खैर ,
सच है साईं जैसा दानी ,मिल न सकेगा जग में ,
अंश ईश का साईं बाबा ,उनेह न कुछ भी मुश्किल जग में,
स्नेह शील ,सौजन्य आदि का ,आभूषण धारण कर,
बढता इस दुनिया में जो भी ,मानव -सेवा के पथ पर,
वही जीत लेता है जगती के ,जन-जन का अंतस्तल ,
उसकी एक उदासी ही जग को ,कर देती है विह्वल ,
जब-जब जग में भार पाप का,बढ-बढ जाता है ,
उसे मिटाने की ही खातिर ,अवतारी हो आता है ,
पाप और अन्याय सभी कुछ ,इसी जगती का हर में,
दूर भगा देता दुनिया के,दानव को क्षण भर में,
स्नेह सुधा की धार बरसने ,लगती है इस दुनिया में,
गले परस्वर मिलने लगते है, जन-जन आपस में ,
ऐसे ही अवतारी साईं, मृत्युलोक में आकर,समता का यह पाठ पढाया ,
सबको अपना आप मिटाकर ,नाम द्वारका मस्जिद का रखा ,शिरडी में साईं ने,
दान,ताप,संताप मिटाया ,जो कुछ पाया साईं ने,
सदा याद में मस्त राम की,बैठे रहते थे साईं,
पहर आठही राम नाम की ,भजते रहते थे साईं,
सुखी-रूखी ताज़ी बासी,चाहे या होवे पकवान ,
सदा प्यार के भूखे साईं की,खातिर थे सभी समान ,
स्नेह और श्रद्धा से अपनी ,जन जो कुछ दे जाते थे ,
बड़े चाव से उस भोजन को बाबा पावन करते थे,
कभी-कभी मन बहलाने को,बाबा बाग़ में जाते थे,
प्रमुदित मन में निरख प्रकृति ,छठा को वे होते थे ,
रंग-बिरंगे पुष्प बाग़ के ,मंद -मंद हिल -डुल करके ,
बीहड़ वीराने मन में भी ,स्नेह सलिल भर जाते थे,
ऐसी सुमधुर बेला में भी ,दुःख आपद विपदा के मारे ,
अपने मन की व्यथा सुनाने ,जन रहते बाबा को घेरे ,
सुनकर जिनकी करुण कथा को ,नयन कमल भर आते थे,
दे विभूति हर व्यथा ,शान्ति उनके उर में भर देते थे,
जाने क्या अद्भुत ,शक्ति ,उस विभूति में होती थी,
जो धारण करके मस्तक पर ,दुःख सारा हर लेती थी ,
धन्य मनुज वे साक्षात् दर्शन ,जो बाबा साईं के पाये ,
धन्य कमल कर उनके जिसने ,चरण -कमल वे परसाए,
काश ! निर्भय तुमको भी ,साक्षात् साईं मिल जाता ,
बरसों से उजड़ा चमन अपना ,फिर से आज खिल जाता ,
गर पकड़ता मैं चरण श्रीके ,नहीं छोड़ता उम्रभर
मना लेता मैं जरूर उनको ,गर रुठते साईं मुझ पर,
जब जब जग में भार पाप का , बढ़ता ही जाता है ,
उसे मिटाने की ही खातिर ,अवतारी ही आता है ,
पाप और अन्याय सभी कुछ , इस जगती का हर के ,
दूर भगा देता दुनिया के, दानव में षण भर में
स्नेह सुधा की धार बरसने , लगती है दुनिया में .
गले परस्पर मिलने लगते , जन जन है आपस में
ऐसे ही अवतारी साईं , म्रत्यलोक में आकर ,
समता का यह पाठ पढाया , सबको अपना आप मिटाकर,
नाम द्वारका मस्जिद्का , रक्खा सिरडी में साईं बाबा ने ,
पाप ताप संताप मिटाया, जो कुछ पाया साईं ने ,
सदा याद में मस्त राम की , बेठे रहते थे साईं ,
पहर आठ ही राम नाम की भजते रहते थे साईं
Shirdi Sai Baba Chalisa Lyrics in English
Pehle Sai ke charno mein, apna sheesh nivauo mai,
Kaise Shirdi Sai aaye, saara haal sunau mai. ||1||
Kaun hai mata, pita kaun hai, yeh na kisi ne bhi jaana,
Kaha janam Sai ne dhara, prashan paheli raha bana. ||2||
Koee kahe Ayodhya ke, yeh Ramchandra bhagvan hain,
Koee kehta Saibaba, pavan putra Hanuman hain. ||3||
Koee kehta mangal murti, Shri Gajanan hain Sai,
Koee kehta Gokul-Mohan Devki Nandan hain Sai. ||4||
Shanker samajh bhakt kaee to, baba ko bhajhte rahte,
Koee kahe avtar datt ka, pooja Sai ki karte. ||5||
Kuch bhi mano unko tum, pur sai hain sachche bhagvan,
Bade dayalu deen-bandhu, kitno ko diya jivan-daan. ||6||
Kaee varsh pehle ki ghatna, tumhe sunaunga mein baat,
Keesy bhagyashaali ki Shirdi mein aaee thi barat. ||7||
Aaya saath usi ke tha, baalak aik bahut sunder,
Aaya aaker vahin bus gaya, paavan Shirdi kiya nagar. ||8||
Kaee dino tak raha bhatakta, bhiksha maangi usne dar dar,
Aur dikhaee aisee leela, jug mein jo ho gaee amar. ||9||
Jaise-jaise umar badi, badti hee vaisy gaee shaan,
Ghar ghar hone laga nagar mein, Sai baba kaa gungaan. ||10||
Digdigant mein laga goonjane, phir to Saiji ka naam,
Deen-dhukhi ki raksha karna, yahi raha baba ka kaam. ||11||
Baba ke charno mein ja kar, jo kehta mein hoo nirdhan,
Daya usee par hoti unkee, khul jaate dhukh ke bandhan. ||12||
Kabhi kisee ne maangi bhiksha, do baba mujhko suntaan,
Aivom astoo tub kaihkar Sai de te thay usko vardaan. ||13||
Swayam dhukhi baba ho jaate, deen-dukhijan ka lukh haal,
Anteh: karan bhi Sai ka, sagar jaisa raha vishal. ||14||
Bhakt ek madrasi aaya, ghar ka bahut bada dhanvaan,
Maal khajana behadh uskaa, keval nahi rahi suntaan. ||15||
Laga manane Sainath ko, baba mujh per daya karo,
Junjha se junkrit naiya ko, tum hee mairee par karo. ||16||
Kuldeepak ke bina andhera, chchaya hua ghar mein mere,
Isee liye aaya hoon baba, hokar sharnagat tere. ||17||
Kuldeepak ke abhav mein, vyarth hai daulat ki maya,
Aaj bhikhari ban kar baba, sharan tumhari mein aaya, ||18||
De de mujhko putra-daan, mein rini rahoonga jivan bhar,
Aur kisi ki aas na mujko, siraf bharosa hai tum per. ||19||
Anunaye-vinaye bahut ki usne, charano mein dhar ke sheesh,
Tub prasana hokar baba ne, diya bhakta ko yeh aashish. ||20||
‘Allah bhala karega tera,’ putra janam ho tere ghar,
Kripa rahegi tum per uski, aur tere uss balak per. ||21||
Ab tak nahi kisi ne paya, sai ki kripa ka paar,
Putra ratan de madrasi ko, dhanya kiya uska sansaar. ||22||
Tan-man se jo bhaje usi ka jug mein hota hai uddhar,
Sanch ko aanch nahi haiy koee, sada jooth ki hoti haar. ||23||
Mein hoon sada sahare uske, sada rahoonga uska daas,
Sai jaisa prabhu mila haiy, itni ki kum haiy kya aas. ||24||
Mera bhi din tha ik aisa, milti nahi mujhe thi roti,
Tan per kapda duur raha tha, sheish rahi nanhi si langoti, ||25||
Sarita sammukh hone per bhi mein pyasa ka pyasa tha,
Durdin mera mere ooper, davagani barsata tha. ||26||
Dharti ke atirikt jagat mein, mera kuch avalumbh na tha,
Bana bhikhari maiy duniya mein, dar dar thokar khata tha. ||27||
Aise mein ik mitra mila jo, param bhakt Sai ka tha,
Janjalon se mukt, magar iss, jagti mein veh bhi mujh sa tha. ||28||
Baba ke darshan ke khatir, mil dono ne kiya vichaar,
Sai jaise daya murti ke darshan ko ho gaiye taiyar. ||29||
Paavan Shirdi nagari mein ja kar, dhekhi matvaali murti,
Dhanya janam ho gaya ki humne jab dhekhi Sai ki surti. ||30||
Jabse kiye hai darshan humne, dukh sara kaphur ho gaya,
Sankat saare mite aur vipdaon ka ant ho gaya. ||31||
Maan aur sammaan mila, bhiksha mein humko baba se,
Prati bambit ho uthe jagat mein, hum Sai ki abha se. ||32||
Baba ne sammaan diya haiy, maan diya is jivan mein,
Iska hee sambal le mein, hasta jaunga jivan mein. ||33||
Sai ki leela ka mere, mun par aisa assar hua,
Lagta, jagti ke kan-kan mein, jaise ho veh bhara hua. ||34||
‘Kashiram’ baba ka bhakt, iss Shirdi mein rehta tha,
Maiy Sai ka Sai mera, veh duniya se kehta tha. ||35||
Seekar svayam vastra bechta, gram nagar bazaro mein,
Jhankrit uski hridh-tantri thi, Sai ki jhankaron se. ||36||
Stabdh nisha thi, thay soye, rajni aanchal me chand sitare,
Nahi soojhta raha hath ka, hath timiri ke mare. ||37||
Vastra bech kar lote raha tha, hai! Haath se ‘kaashi’,
Vichitr bada sanyoga ki uss din aata tha veh akaki. ||38||
Gher raah mein khare ho gaye, usse kutil, anyaayi,
Maaro kaato looto iski, hee dhvani pari sunaee. ||39||
Loot peet kar usse vahan se, kutil gaye champat ho,
Aaghaton se marmahat ho, usne di thi sangya kho. ||40||
Bahut der tak para raha veh, vahin usi halat mein,
Jaane kab kuch hosh ho utha, usko kisi palak mein. ||41||
Anjane hee uske muh se, nikal para tha Sai,
Jiski prati dhvani Shirdi mein, baba ko parri sunai. ||42||
Shubdh utha ho manas unka, baba gaye vikal ho,
Lagta jaise ghatna sari, ghati unhi ke sunmukh ho. ||43||
Unmadi se idhar udhar tab, baba lage bhatakne,
Sunmukh chizein jo bhi aiee, unkoo lage patkne. ||44||
Aur dhadhakte angaro mein, baba ne kar dala,
Huye sashankit sabhi vaha, lakh tandav nritya nirala. ||45||
Samajh gaye sab log ki koi, bhakt para sankat mein,
Shubit khare thai sabhi vaha par, pare huye vismaiye mein. ||46||
Usse bachane ke hi khatir, baba aaj vikal hai,
Uski hi piraa se pirit, unka ant sthal hai. ||47||
Itne me hi vidhi ne apni, vichitrata dhikhlayi,
Lukh kar jisko janta ko, shradha sarita lehrayee. ||48||
Lekar sanghya heen bhakt ko, gaari ek vaha aayee,
Sunmukh apne dekh bhakt ko, Sai ki aankhe bhar aayee. ||49||
Shant, dheer, gambhir sindhu sa, baba ka anthsthal,
Aaj na jane kyon reh-rehkar, ho jaata tha chanchal. ||50||
Aaj daya ki murti svayum tha bana hua upchaari,
Aur bhakt ke liye aaj tha, dev bana prati haari. ||51||
Aaj bhakti ki vishum pariksha mein, safal hua tha Kaashi,
Uske hee darshan ki khatir, thai umre nagar-nivasi. ||52||
Jab bhi aur jahan bhi koyee, bhakt pare sankat mein,
Uski raksha karne baba jate hai pulbhur mein. ||53||
Yug yug ka hai satya yeh, nahi koi nayee kahani,
Aapat grast bhakt jab hota, jate khudh antar yami. ||54||
Bhedh bhaav se pare pujari manavta ke thai sai,
Jitne pyare Hindu-Muslim uutne hi Sikh Isai. ||55||
Bhed bhaav mandir masjid ka tor phor baba ne dala,
Ram rahim sabhi unke thai, Krishan Karim Allah Tala. ||56||
Ghante ki pratidhvani se gunja, masjid ka kona kona,
Mile paraspar Hindu Muslim, pyar bada din din doona. ||57||
Chamatkar tha kitna sundar, parichaye iss kaya ne dee,
Aur neem karvahat mein bhi mithaas baba ne bhar dee. ||58||
Sabko sneha diya Sai ne, sabko suntul pyar kiya,
Jo kuch jisne bhi chaha, baba ne usko vahi diya. ||59||
Aise snehsheel bhajan ka, naam sada jo japa kare,
Parvat jaisa dhukh na kyoon ho, palbhar mein veh door tare. ||60||
Sai jaisa daata humne, aare nahi dekha koi,
Jiske keval darshan se hee, saari vipda door gayee. ||61||
Tan mein Sai, man mein Sai, Sai bhajha karo,
Apne tan ki sudh budh khokur, sudh uski tum kiya karo. ||62||
Jab tu apni sudh tajkur, baba ki sudh kiya karega,
Aur raat din baba, baba, baba hi tu rata karega. ||63||
To baba ko aare! vivash ho, sudh teri leni hee hogi,
Teri har icha baba ko, puree hee karni hogi. ||64||
Jungal jungal bhatak na pagal, aur dhundne baba ko,
Ek jagah keval Shirdi mein, tu paiga baba ko. ||65||
Dhanya jagat mein prani hai veh, jisne baba ko paya,
Dukh mein sukh mein prahar aath ho, sai ka hee gune gaya. ||66||
Gire sankat ke parvat, chahe bijli hi toot pare,
Sai ka le naam sada tum, sunmukh sub ke raho arre. ||67||
Iss budhe ki sunn karamat, tum ho jaoge hairaan,
Dang reh sunkar jisko, jane kitne chatur sujaan. ||68||
Ek baar Shirdi mein sadhu dhongi tha koi aaya,
Bholi bhali nagar nivasi janta ko tha bharmaya. ||69||
Jari, butiyan unhe dhikha kar, karne laga vaha bhashan,
Kehne laga sunno shrotagan, ghar mera hai vrindavan. ||70||
Aushadhi mere paas ek hai, aur ajab iss mein shakti,
Iske sevan karne se hi, ho jaati dukh se mukti. ||71||
Aggar mukta hona chaho tum, sankat se bimari se,
To hai mera numra nivaidan, har nar se har nari se, ||72||
Lo kharid tum isko, sevan vidhiyan hai nyari,
Yadyapi tuch vastu hai yeh, gun uske hai atisheh bhari. ||73||
Jo hai suntaan heen yeh yadi, meri aushdhi ko khaye,
Putra ratan ho parapat, aare aur veh mooh manga phal paye. ||74||
Aushadh meri jo na kharide, jeevan bhar pachtayega,
Mujh jaisa prani shayad hi, aare yaha aa payega. ||75||
Duniya do din ka mela hai, mauj shaunk tum bhi kar lo,
Gar is se milta hai, sub kuch, tum bhi isko le lo. ||76||
Hairani barti janta ki, lakh iski kaarastaani,
Pramudit veh bhi man hi man tha, lakh logo ki nadani. ||77||
Khabar suna ne baba ko yeh, gaya daud kar sevak ek,
Sun kar bhukuti tani aur, vismaran ho gaya sabhi vivek. ||78||
Hukum diya sevak ko, satvar pakar dusht ko lao,
Ya Shirdi ki seema se, kapti ko duur bhagao. ||79||
Mere rehte bholi bhali, shirdi ki janta ko,
Kaun neech aisa jo, sahas karta hai chalne ko. ||80||
Pulbhur mai hi aise dhongi, kapti neech lootere ko,
Maha naash ke maha gart mein, phahuncha doon jivan bhar ko. ||81||
Tanik mila aabhaas madari, krur kutil anyayi ko,
Kaal nachta hai ab sir par, gussa aaya Sai ko. ||82||
Pal bhar mein sab khel bandh kar, bhaga sir par rakh kar pairr,
Socha tha sabh hi ab, bhagvan nahi hai ab khair. ||83||
Such hai Sai jaisa daani, mil na sakega jag mein,
Ansh iish ka Sai baba, unhe na kuch bhi mushkil jag mein. ||84||
Sneh, sheel, sojanya, aadi ka abhushan dharan kar,
Badta iss duniya mein jo bhi, manav sevaye path par. ||85||
Vahi jeet leta hai jagti, ke jan jan ka anthsthal,
Uski ek udasi hi jag ko kar deti hai vrihal. ||86||
Jab jab jug mein bhar paap ka bar bar ho jaata hai,
Usse mita ne ke hi khatir, avtari ho aata hai. ||87||
Paap aur anyaya sabhi kuch, iss jagti ka har ke,
Duur bhaga deta duniya ke danav ko shan bhar mein. ||88||
Sneh sudha ki dhar barasne, lagti hai duniya mein,
Gale paraspar milne lagte, jan jan hai aapas mein. ||89||
Aisse hee avtari Sai, mrityulok mein aakar,
Samta ka yeh paath paraya, sabko apna aap mitakar. ||90||
Naam dwarka masjid ka , rakha Shirdi ne,
Haap taap, suntaap mitaya, jo kuch aaya Sai ne. ||91||
Sada yaad mein mast ram ki, baithe rehte thai Sai,
Peher aath hee naam ram ka, bhajte rehte thai Sai. ||92||
Sookhee rookhee tazi baasi, chahe ya hovai pakvaan,
Sada pyar ke bhooke Sai ke, khatir thai sabhi samaan. ||93||
Sneh aur shradha se apni, jan jo kuch de jaate thay,
Bade chaav se uss bhojan ko, baba paavan karte thay. ||94||
Kabhi kabhi man behlane ko, baba baag mein jate thay,
Pramudit man nirukh prakrati, chatta ko veh hote thay. ||95||
Rang-birange pushp baag ke manam manam hil dul karke,
Beehar birane man mein bhi sneh salil bhar jate thai. ||96||
Aise su-madhur bela mein bhi, dukh aafat bipda kai maare,
Apne man ki vyatha sunane, jan rehte baba ko ghere. ||97||
Sunkar jinki karun katha ko, nayan kamal bhar aate thay,
De vibhuti har vyatha, shanti, unke uur mein bhar dete thay. ||98||
Jaane kya adhbut, shakti, uuss vibhuti mein hoti thi,
Jo dharan karke mastak par, dukh saara har leti thi. ||99||
Dhanya manuj veh sakshaat darshan, jo baba Sai ke paye,
Dhanya kamal kar unke jinse, charan kamal veh parsai. ||100||
Kaash nirbhaiy tumko bhi, saakshat Sai mil jaata,
Varshon se ujra chaman apna, phir se aaj khil-jata. ||101||
Gar pakar mein charan shri ke, nahi chorta umar bhar,
Mana leta mein jaroor unko gar rooth te Sai mujh par!! ||102||