कहते हैं कि भगवान् कण-कण में विराजमान हैं। जल,थल व आकाश में ऐसा कोई स्थान नहीं जहाँ ईश्वर का वास न हो। देवभूमि भारत के वासियों की अटूट श्रद्धा का इस संसार में कोई थाह नहीं। हम प्रकृति ही नहीं बल्कि किसी भी वस्तुमें देवदर्शन कर सकते हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि मनुष्य में अपार आस्था व श्रद्धा हो तो साधारण से पत्थर में भी भगवान दिखाई दे जाता है। इसका एक अनुपम उदाहरण है – राजस्थान में कोटा जिले की दीगोद तहसील के गाँव बूढ़ादीत में स्थित ईंट माता का मन्दिर। सुनने में आपको भले ही थोड़ा आश्चर्यजनक लगे परन्तु आज के लगभग एक हजार वर्षों से इस गाँव में एक ईंट को देवी स्वरूप में पूजा जाता है। ना सिर्फ पूजा जाता है बल्कि यह मीणा समाज में कंजोलिया व करेलवाल गोत्रों की कुलदेवी है। दरअसल उस समय मूर्ति का निर्माण आसान नहीं था अतः माँ के भक्तों ने ईंट को ही माँ भगवती का स्वरुप मानकर उसकी स्थापना कर दी, और आज एक सहस्त्राब्दी बीत जाने पर भी वह ईंट बिना किसी क्षति के यथावत विराजित और पूजित है।
ईंट माता की स्थापना के सम्बन्ध में एक घटना इस प्रकार बताई जाती है कि बूढ़ादीत कस्बे में ब्राह्मण रहते थे। मीणा समाज के कंजोलिया (अन्यत्र करेलवाल) गोत्र के मीना एवं मेघवाल जाति के लोग 5-6 मील दूर रहते थे। मीणा समाज की स्त्रियां जब बूढ़ादीत गाँव में से जाती तो वहां के निवासी उन पर व्यंग्य करते। एक दिन स्त्रियों ने यह बात अपने परिवारजनों को बता दी। स्वाभिमान का प्रश्न मानकर मीणाओं ने बूढ़ादीत गाँव पर हमला कर दिया और वहां रहने वालों को गाँव से भगा दिया और वहीं रहने लगे।
डॉ रघुनाथ प्रसाद तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘मीणा समाज की कुलदेवियाँ’ में लिखा है कि “मीणा समाज और मेघवाल समाज जो बूढ़ादीत में आबाद हो गए वे मकानों की चिनाई का काम करते थे। चिनाई के काम में ईंटों का प्रयोग होता था, वह उनकी आमदनी का साधन था, अतः उन्होनें ईंट को अपनी कुलदेवी मानते हुए उसकी कुलदेवी के रूप में खुले आकाश के नीचे स्थापना कर दी। बाद में चबूतरा बनाकर उस पर ईंट माता को विराजित कर दिया। कंजोलिया गोत्र के `मीणा व मेघवाल दोनों ही समाज के लोग माता की पूजा करते थे। मीणा समाज माता को रोटी एवं खीर का भोग लगाते थे।जो आज भी वही भोग माता को अर्पित किया जाता है। मेघवाल समाज माता के लिए घी लाता था। मीणा एवं मेघवाल समाज में कुछ समय बाद मतभेद हो गया। कारण था मीणा समाज पहले पूजा करता था तथा मेघवाल समाज को पूजा हेतु घी चढ़ाने का अवसर बाद में मिलता था। जब मंदिर के चबूतरे पर जाकर मेघवाल समाज पूजा करने लगा तथा रोटी व खीर का भोग लगाने लगा तो मीणाओं ने इसका विरोध किया। फलतः मेघवाल समाज ने ईंट माता का अपना अलग मंदिर बना लिया। वह मंदिर भी खुले आकाश के नीचे ही है। दोनों ही मंदिरों में माता की कोई गुमटी नहीं है।”
लाल ईंट से नहीं बनाते मकान :
यहाँ के मीणा ईंट को अपनी कुलदेवी के रूप में मानते हैं,अतः ये लोग लाल ईंट का उपयोग अपने मकान आदि बनाने में नहीं करते हैं।
चैत्र एवं आश्विन के नवरात्रों में भक्तों की अपार भीड़ लगती है। माता को रोटी एवं खीर का ही भोग लगाया जाता है। ईंट माता की पूजा-अर्चना संबंधित समाज के व्यक्ति ही करते हैं।
मीणा समाज की सती माता :
डॉ रघुनाथ प्रसाद तिवारी ने यहाँ के मीणा समाज की सती माता का भी उल्लेख करते हुए लिखते हैं “कुछ बूढ़ादीत के मीणा समाज का एक कथानक यह भी है कि लगभग 700 वर्ष पूर्व कंजोलिया समाज में एक गृहस्थ संत श्री कन्हैयालाल जी हुए थे। उनके दो पत्नियां थी। एक रोज अनायास कन्हैयालाल जी का स्वर्गवास हो गया। एक पत्नी जो घर पर थी उसने सती होने का निर्णय लिया। उनकी दूसरी पत्नी गोबर बीनने हेतु गई हुई थी। जब उसको अपने पति के देहावसान की जानकारी हुई तो गोबर से भरी तगारी उसके हाथों से छूट गई। गोबर की तगारी लुढ़कती हुई नारियल में परिवर्तित हो गई। दूसरी पत्नी ने भी नारियल हाथ में लेकर सती होने का निर्णय लिया। जिस स्थान पर गोबर नारियल के रूप में परिवर्तित हुआ वही कन्हैयालाल जी का दाहसंस्कार हुआ और आज वह मंदिर की मान्यता के रूप में पूजित है। कंजोलिया गोत्र के मीणे यहां जात जडूले उतारते हैं तथा बसंत पंचमी को अपनी बहन-बेटियों को बुलाकर उन्हें भेंट स्वरूप यथा साध्य उपहार देते हैं। सती माता के मंदिर में एक हवन कुंड भी बना हुआ है। सती माता की मूर्तियों को लड्डू एवं बाटी का भोग लगाया जाता है।”
प्राचीन सूर्य मंदिर :
बूढ़ादीत का अर्थ है बूढ़ा-पुराना, दीत- सूर्य। ग्राम में नवीं शताब्दी का एक प्राचीन सूर्य मंदिर भी है जो ग्राम के तालाब की पाल पर पूर्वाभिमुखी है। मंदिर का शिखरबंध दर्शनीय है। मंदिर पंचायतन शैली का बताया जाता है।
कैसे पहुंचें :- ईंट माता का स्थान बूढ़ादीत कोटा से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां जाने के लिए दीगोद से सुल्तानपुर और फिर बूढ़ादीत जा सकते हैं।
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