हिंदू धर्म में विवाहित स्त्रियां अपने पति की दीर्घायु के लिए कई प्रकार के व्रत रखती हैं, इन्हीं में से एक है वट सावित्री व्रत। जिसे वट पूर्णिमा/वट अमावस्या भी कहा जाता है। यह पर्व मिथिला और पश्चिमी भारतीय राज्यों गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में विवाहित महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। इस दिन सभी सुहागिन महिलाएं 16 श्रृंगार कर बरगद के पेड़ की पूजा करती हैं और पेड़ के चारों तरफ परिक्रमा लगाती हैं। इस व्रत के कुछ नियम हैं जिनका पालन करना काफी अहम माना गया है। जानिए वट सावित्री व्रत की पूजन सामग्री, विधि, नियम, कथा और सभी संबंधित जानकारी…
वट पूर्णिमा / वट सावित्री व्रत कब मनाया जाता है ?
वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ अमावस्या के दिन किया जाता है। कई जगह ये व्रत ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भी रखने का विधान है। इस व्रत को वट सावित्री व्रत के नाम से जाना जाता है।
वट सावित्री व्रत क्यों मनाया जाता है ?
कथा के अनुसार, इस दिन सावित्री ने अपने दृढ़ संकल्प और श्रद्धा से यमराज से अपने मृत पति सत्यवान के प्राण वापस पाए थे। अतः सभी सुहागिन महिलाएं भी इसी संकल्प के साथ अपने पति की आयु और प्राण रक्षा के लिए यह व्रत रखकर पूरे विधि विधान से पूजा करती हैं।
वट पूर्णिमा / वट सावित्री व्रत का महत्त्व –
महिलाएं अखण्ड सौभाग्यवती रहने के लिए यह व्रत रखती है। महाभारत में वर्णित है कि यह पर्व सावित्री और सत्यवान की कथा पर आधारित है। इस दिन वटवृक्ष (बरगद का पेड़) की पूजा की जाती है। मान्यता है कि वट वृक्ष की जड़ों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु और डालियों व पत्तियों में भगवान शिव का वास होता है। इसलिए इसकी पूजा करने से पति की दीर्घायु के साथ ही उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है। कहा जाता है कि वटवृक्ष ने ही अपनी जटाओं में सावित्री के पति सत्यवान के मृत शरीर को सुरक्षित रखा था ताकि कोई उसे नुकसान न पहुंचा सके। इसलिए वट सावित्री के व्रत में बरगद के पेड़ की पूजा होती है। कथानुसार माता सावित्री अपने पति सत्यवान के प्राणों को यमराज से छुड़ाकर लाई थीं। अतः व्रत रखने वालों को मां सावित्री और सत्यवान की इस पवित्र कथा सुननी चाहिए। इस दिन सुहागिन महिलाएं अपने सुहाग की लंबी उम्र के लिए व्रत रखती हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार जो स्त्री उस व्रत को सच्ची निष्ठा से रखती है उसे न सिर्फ पुण्य की प्राप्ति होती है बल्कि उसके पति पर आई सभी परेशानियां भी दूर हो जाती हैं। महिलाओं के लिए इस व्रत का विशेष महत्व है।
वट सावित्री व्रत के लिए पूजन सामग्री –
पूजा करने के लिए माता सावित्री की मूर्ति अथवा शिव पार्वती की मूर्ति, बांस की टोकरी, बरगद का पेड़, मोली, मिट्टी का दीपक, मौसमी फल, पूजा के लिए लाल कपड़े, सिंदूर-कुमकुम और रोली, हल्दी, चढ़ावे के लिए पकवान, अक्षत (साबुत चावल), पीतल का पात्र जल चढ़ाने के लिए।
पूजा विधि / वट सावित्री कैसे मनाया जाता है | How is Vat Savitri celebrated? | Pooja Vidhi –
इस दिन महिलायें ब्रह्म मुहूर्त में उठें। स्नान आदि करके फिर नए वस्त्र पहने और सोलह श्रृंगार करें। सूर्य को अर्घ्य देंवें। और व्रत करने का संकल्प लें। अर्घ्य देते समय इस मन्त्र का जाप करें।
“अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते
पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणार्घ्यं नमोऽस्तुते।”
इसके बाद सभी पूजन सामग्री को वट (बरगद) वृक्ष के नीचे रखें। और स्थान ग्रहण करें। इसके बाद लाल कपड़ा बिछाकर सबसे पहले सावित्री की मूर्ति को अपने सामने स्थापित करें। सावित्री की मूर्ति ना हो तो शिव पार्वती की मूर्ति व गणेश जी को स्थापित करें। फिर अन्य सामग्री जैसे धूप, दीप, रोली, भिगोए चने, सिंदूर आदि से गणेशजी,सावित्री और वट वृक्ष का पूजन करें और जल चढ़ायें। इसके बाद धागे को पेड़ पर लपेटे। और श्रद्धा अनुसार 5, 11, 21, 51 या 108 बार बदगद के पेड़ की परिक्रमा करें। वट सावित्री व्रत के दिन बरगद के पेड़ की परिक्रमा इस मंत्र को पढ़ते हुए करें…
“यानि कानि च पापानि जन्मांतर कृतानि च।
तानि सर्वानि वीनश्यन्ति प्रदक्षिण पदे पदे।।”
अगर आप के आस पास बरगद का पेड़ नहीं है तो आप कहीं से बरगद पेड़ की एक टहनी तोड़ कर मंगवा लेंवें और साथ में तुलसी का पौधा भी रख लेंवें। अब गणेश जी की पूजा से शुरुवात करते हुए माँ सावित्री की पूजा करें। और बरगद की उस टहनी की पूजा करें और जल चढ़ायें। अब मौली, रोली, कच्चा सूत, भिगोया हुआ चना, फूल तथा धूप आदि से पूजा करें। इसके बाद बड़ के पत्तों और मोली की सहायता से गहने बनाकर पहने और हाथ में कुछ अक्षत लेके वट सावित्री की कथा सुनें। भीगे हुए चनों का बायना निकालकर, कुछ रुपए रखकर अपनी सास को देवें और उनके पैर छूकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करें। यदि सास वहां न हो तो बायना बनाकर उन तक पहुँचा देवें । पूजा समाप्त होने पर ब्राह्मण को वस्त्र तथा फल आदि बांस के पात्र में रखकर दान करें। तथा इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की कथा को अवश्य सुनें और दूसरों को भी सुनाएं क्योंकि सुनने मात्र से भी इसका फल मिलता है।
वट पूर्णिमा / वट सावित्री व्रत कथा –
प्राचीन काल में मद्र देश के राजा अश्वपति संतान के सुख से वंचित थे। उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए सावित्री देवी की पूजा की और कठिन यज्ञ करवाया। इससे उनके घर में कन्या का जन्म हुआ और राजा को संतान सुख की प्राप्ति हुई। राजा ने देवी के नाम पर ही अपनी पुत्री का नाम भी सावित्री रखा। सावित्री अतिसुन्दर थी।
सावित्री के युवा होने पर एक दिन उनके पिता ने मंत्री के साथ उन्हें वर चुनने के लिए भेजा। सावित्री ने सत्यवान को अपने वर के रूप में चुना। जब वह वापस अपने महल आईं तो उसी समय देवर्षि नारद ने सावित्री के पिता को बताया कि महाराज द्युमत्सेन का पुत्र सत्यवान की अल्पायु है और शादी के 12 वर्ष पश्चात उसकी मृत्यु हो जाएगी। यह बात सुनकर राजा ने अपनी पुत्री सावित्री से किसी दूसरे वर को चुनने के लिए कहा लेकिन सावित्री अपनी बात पर अटल थी वह नहीं मानी। जब सावित्री को इस बात का पता चला तो वह अपने पति व सास-ससुर के साथ जंगल में रहने लगीं।
नारदजी ने सत्यवान की मृत्यु का समय बताया था उसके करीब आने के कुछ समय पूर्व से ही सावित्री ने व्रत रखना शुरू कर दिया था। जब यमराज उनके पति सत्यवान को साथ लेने आए तो सावित्री भी उनके पीछे-पीछे चल दीं। और कहा- जहां मेरे पति रहेंगे मुझे उनके साथ रहना है। यही मेरा पत्नी धर्म है। इस पर यमराज ने सावित्री की धर्मनिष्ठा से प्रसन्न होकर तीन वर मांगने को कहा तब उन्होंने सबसे पहले अपने नेत्रहीन सास-ससुर के आंखों की ज्योति और दीर्घायु की कामना की।
दूसरे वरदान में सावित्री ने अपने सास-ससुर का खोया राजपाट माँगा। और आखिर में तीसरे वरदान में उन्होंने सौ पुत्रों का वरदान माँगा।
चतुराई से मांगे गए वरदान के जाल में फंसकर यमराज को सावित्री के पति सत्यवान के प्राण वापस करने पड़े। इस प्रकार सावित्री ने अपने पतिव्रता व्रत के प्रभाव से अपने पति को पुन: जीवित करवाया और सास-ससुर को नेत्र ज्योति प्रदान करते हुए उनको अपना राज्य वापस दिलवाया।
यमराज ने चने के रूप में सत्यवान के प्राण लौटाए थे। इसलिए वटसावित्री व्रत में चने का प्रसाद लगाया जाता है।
इस व्रत को करने से सौभाग्यवती महिलाओं की मनोकामना पूर्ण होती है और उनका अखण्ड सौभाग्य रहता है।
भगवान् श्रीराम ने भी की थी बरगद के पेड़ की पूजा –
कहा जाता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम वनवास काल के दौरान भारद्वाज ऋषि के आश्रम में गये थे। वहाँ उनके विश्राम की व्यवस्था बरगद के पेड़ के नीचे की गई थी। दूसरे दिन सुबह भारद्वाज ऋषि ने भगवान श्रीराम को यमुना की पूजा करने के साथ बरगद के पेड़ की पूजा करने तथा उनका आशीर्वाद लेने का उपदेश दिया था। वाल्मीकि रामायण में अयोध्या काण्ड के 5वें सर्ग में बताया गया है कि सीता जी ने भी श्याम वट की प्रार्थना करके जंगल में होने वाली प्रतिकूल आघातों से उनकी रक्षा की याचना की थी।
वट सावित्री व्रत मुहूर्त –
अमावस्या व्रत मुहूर्त – (22 May 2020)
अमावस्या तिथि 21 मई रात 9 बजकर 35 मिनट से शुरू हो जायेगी और इसकी समाप्ति 22 मई को रात 11 बजकर 8 मिनट पर हो जायेगी। व्रत 22 तारीख को रखा जायेगा। अत: पूरे दिन किसी भी समय वट देव सहित माता सावित्री की पूजा की जा सकती है।
वट सावित्री पूर्णिमा व्रत मुहूर्त – (5 June 2020)
Purnima Tithi Begins – 03:15 AM on Jun 05, 2020
Purnima Tithi Ends – 12:41 AM on Jun 06, 2020