‘कुलदेवीकथामाहात्म्य’
गोठ-मांगलोद की दधिमथी माता
इतिहास
दधिमथी माता का आदि शक्तिपीठ राजस्थान के नागौर जिले की जायल तहसील में है। यह नागौर से लगभग 40 कि.मी. दूर तथा जायल से 10 कि.मी. दूर गोठ और मांगलोद गाँवों के बीच स्थित है। मन्दिर सड़कमार्ग से जुड़ा है।
इतिहासकार गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के अनुसार इस मन्दिर के आस-पास का क्षेत्र प्राचीनकाल में दाहिम क्षेत्र कहलाता था। उस क्षेत्र से निकले हुए विभिन्न जातियों के लोग क्षेत्र के नाम से दाहिमा ब्राह्मण, दाहिमा राजपूत, दाहिमा जाट आदि कहलाए। इस क्षेत्र में महर्षि दधीचि की तपोभूमि थी। दधिमथीपुराण के अनुसार भगवती महालक्ष्मी ने निःसंतान महर्षि अथर्वा और उनकी पत्नी शान्ति की तपस्या से प्रसन्न होकर वर मांगने को कहा। महर्षि अथर्वा को पुत्र की तथा शान्ति को पुत्री की अभिलाषा थी। महालक्ष्मी के वरदान से उनके घर महर्षि दधीचि का पुत्ररूप में जन्म हुआ और स्वयं महालक्ष्मी पुत्री के रूप में अवतरित हुई। दधिसागर को मथने के कारण वे दधिमथी कहलाई। उन्होंने कुलदेवी के रूप में महर्षि दधीचि का संरक्षण किया। महर्षि दधीचि के वंश के अतिरिक्त अन्य समाजों में भी वे कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। महर्षि दधीचि दाहिम क्षेत्र में कुलगुरु के रूप में प्रतिष्ठित रहे। विभिन्न समाजों ने कुलगुरु की कुलदेवी के प्रति श्रद्धा भक्ति व आस्था रखी। दधिमथी माता उन समाजों में कुलदेवी के रूप में पूजित हैं।
दधिमथी माता की प्रतिमा का प्राकट्य भूगर्भ से हुआ है। उनका गोठ-मांगलोद स्थित शक्तिपीठ अत्यन्त प्राचीन है। माता की प्रतिमा के ठीक सामने शिलालेख है। इस अभिलेख को पं. रामकरण आसोपा ने प्रकाशित किया था। उन्होंने इसे मारवाड़ का प्राचीनतम अभिलेख बताते हुए 608 ई. में उत्कीर्ण गुप्तकालीन अभिलेख सिद्ध किया था। अभिलेख कुटिललिपि में अंकित है। इसमें धुल्हण नामक शासक के शासनकाल में अविघ्ननाग की अध्यक्षता में इस मन्दिर के निमित्त गोष्ठिकों और ब्राह्मणों द्वारा दिये गये 17070 द्रम्मों के दान का उल्लेख किया गया है। माता की प्रतिमा का कपालभाग ही भूमि से बाहर निकला हुआ है। इस कारण यह शक्तिपीठ कपालपीठ के नाम से प्रसिद्ध है।
Dadhimathi Mata Temple History in Hindi Video :
मूर्तिकला के विशेषज्ञ मन्दिर के स्थापत्य पर प्रतिहारकालीन कला का प्रभाव मानते हैं। विजयशंकर श्रीवास्तव के मतानुसार ‘गोठ-मांगलोद का दधिमथी मन्दिर प्रतिहारकालीन मन्दिर-स्थापत्य का सुन्दर उदाहरण है तथा उस युग की कला के उत्कृष्ट स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। दाहिमा ( दधीचक ) ब्राह्मणों की कुलदेवी को समर्पित यह देवभवन भारतीय स्थापत्य एवं मूर्तिकला का गौरव है।’
मन्दिर के वास्तुवैशिष्ट्य का वर्णन करते हुए डॉ. राघवेन्द्रसिंह मनोहर लिखते हैं –
श्वेत पाषाण से निर्मित यह शिखरबद्ध मन्दिर पूर्वाभिमुख है तथा महामारू शैली के मन्दिर का श्रेष्ठ उदाहरण है। बेदी की सादगी, जंघाभाग की रथिकाओं में देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मध्य भाग में रामायण दृश्यावली एवं शिखर प्रतिहारकालीन परम्परा के अनुरूप हैं। चार बड़े चौक वाला यह मन्दिर भव्य एवं विशाल है।
मन्दिर का जंघाभाग पंचरथ है, जिसकी मध्यवर्ती प्रधान ताक में पश्चिम की ओर आसनस्थ चार भुजाओं वाली दुर्गा, उत्तर की ओर चार भुजाओं वाली पार्वती तथा दक्षिण की ओर आठ भुजाओं वाली गणपति प्रतिमा विद्यमान है जो आंशिक रूप से खण्डित है। इनके समीप स्थानक दिक्पाल अपने वाहनों सहित अंकित हैं। …. प्रतिरथ में दो भुजाओं वाली चंवरधारिणी मूर्ति स्थापित है। राजस्थान की प्रतिहारकालीन मूर्तिकला में रामायण दृश्यावली का प्राचीनतम अंकन दधिमथी माता मन्दिर में ही प्राप्त है।
दधिमती पत्रिका के पूर्व सम्पादक भालचन्द्र व्यास मन्दिर के स्थापत्य एवं शिलालेख में तिथ्यंकन को मन्दिर के प्राचीनतम कालनिर्धारण का हेतुक नहीं मानते। उनके मत में शिलालेख में वर्णित तिथि मन्दिर के जीर्णोद्धार एवं विकास को ही संकेतित करती है। शक्तिपीठ का अस्तित्व इस तिथि से पूर्व भी था, यही तथ्य शिलालेख से व्यक्त होता है। जीर्णोद्धार एवं विकास समय-समय पर होते रहे हैं। विक्रम सम्वत् 1906 में दाहिमा ब्रह्मचारी विष्णुदास द्वारा मन्दिर का नवीनीकरण एवं विकास का कार्य जारी है। दधिमथी शक्तिपीठ की महिमा का उल्लेख करते हुए डॉ. शालिनी सक्सेना लिखती हैं –
‘श्रीदधिमथी माता के मन्दिर में चैत्र व आश्विन के नवरात्रों में विशाल मेला लगता है, जिसमें सम्पूर्ण भारत के दाधीच ब्राह्मण तथा निकटस्थ गाँवों के सर्वजातीय लोग उल्लास के साथ आते हैं, माता की वन्दना पूजा अर्चन ज्योति व प्रसाद आदि करते हैं उस रात्रि को जागरण करते हैं। इस स्थान को शक्तिपीठ कहा गया है।
भक्त श्रद्धालु निकटवर्ती कपालकुण्ड में स्नान कर माता की पूजा – वन्दना करते हैं। मन्दिर में प्रातः सायं आरती होती है। दाधीच ब्रह्मणकुमारों का चूड़ाकरण संस्कार दधिमथी माता परिसर में करने का रिवाज है। श्रीदधिमथीमाता मन्दिर निर्जन प्रदेश में भक्तजनों की शक्ति बढ़ाने वाला एक पुरातन, पवित्र व पावन तीर्थ है।’
रामकुमार दाधीच रचित दधिमथी माता कथामाहात्म्य का हिंदी अनुवाद।
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कथा
॥ ॐ कुलदेव्यै नमः ॥
भक्तवत्सल दधिमथी माता ने कलियुग में भक्तों का उपकार करने के लिए भूमि पर प्रकट होने का संकल्प किया।
वहाँ ब्रह्मकपालक्षेत्र में कुछ ग्वाले स्थित थे, जो गायें चरा रहे थे। उन्होंने दिव्यवाणी सुनी।
हे पुत्रों यहाँ मेरा प्राकट्य हो रहा है। तुम अपनी गायों का ध्यान रखना। वे प्रचण्ड ध्वनि से भयभीत होकर भाग न जाएं।
दधिमथी माता के प्राकट्य के समय वहाँ भीषण ध्वनि हुई। सारी गायें भागने लगीं। ग्वाले चिल्लाने लगे।
दधिमथी माता उस क्षेत्र में धरती को फाड़कर ऊपर की ओर प्रकट होने लगीं, किन्तु ग्वालों का महान् कोलाहल सुनकर रुक गईं। उनका कपाल थोड़ा सा बाहर निकलकर स्थित हो गया। माता पृथ्वी पर उसी रूप में पूजी जाने लगीं।
मारवाड़ के दाहिम क्षेत्र पर राजा धुल्हण के शासनकाल में अविघ्ननाग के सान्निध्य में दाधीच ब्राह्मणों के द्वारा लघुमन्दिर का जीर्णोद्धार और विस्तार किया गया। तब मन्दिर की शोभा की ख्याति समस्त भूतल पर फैल गई।
स्वरूपसिंह नामक एक क्षत्रिय देवी दधिमथी का उपासक था। देवी की कृपा से उसने मेवाड़ का साम्राज्य प्राप्त किया।
राणा ने बुद्धिमान विष्णुदास की प्रेरणा से जीर्णोद्धार और निर्माण कार्यों से अपनी भक्ति व्यक्त की।
माता की कृपा से राणा स्वरूपसिंह ने महान् बलवान् पुत्र प्राप्त किया। इन माताजी की कृपा से ही जोधपुर की महारानी असाध्य रोग से मुक्त हुई।
हमारा शासन पलङीया है
गौत्र मुद्गल है
कुलदेवी कौनसी माताजी है
कृपया करके बताईये
Morpa Mata ji. 9166559701