कवि श्री ईसरदासकृत ‘देवियांण’ का परिचय –
शक्तितत्त्व के अनुसंधानकर्ता जिज्ञासुओं तथा साधकों के लिए ’देवियांण’ अनुपम स्तोत्ररत्न है। भावुक भक्त की भक्ति एवं प्रपत्ति की अभिव्यंजना के साथ-साथ ज्ञानात्मक सूक्ष्मविचार व तत्त्वनिरूपण से युक्त स्तोत्रों में यह महत्त्वपूर्ण है। यह एकशक्तिवाद या एकतत्त्ववाद का प्रतिपादक स्तोत्रकाव्य है। इसके सिद्धान्तानुसार एकमात्र शक्तितत्त्व के अतिरिक्त कोई सत्ता नहीं है। जैसे अनेक स्वर्णाभूषण वस्तुतः स्वर्ण के ही आकृतिभेद हैं उसी प्रकार देवी, देवता, प्राणी, पर्वत, नदी, नाले सब शक्ति के ही विविध व्यक्त रूप हैं। उस शक्तितत्त्व की वास्तविकता को समझना मानवी बुद्धि के वश की बात नहीं है। देवीमहिमा के वर्णन में अपनी सारी प्रतिभा उड़ेलकर भी भक्तकवि अन्त में समर्पणभाव से कहता है –
देवी बापड़ा मानवी कांइ बूझे। देवी तोहरा पार तूं हीज सूझे।। देवी तूंज जांणै गति ग्हैन तोरी। देवी तत्तरूपं गति तूंज मोरी।।
देवियांण राजस्थानी भाषा की लोकप्रिय रचना है। इसके रचयिता महात्मा ईसरदास भक्तिसाहित्य के कीर्तिस्तम्भ माने जाते हैं। महात्मा ईसरदास की मातृभूमि मरुधरा का भारत के ही नहीं अपितु विश्व के सांस्कृतिक इतिहास में अत्यन्त महत्त्व है। देश-विदेश के विद्वानों और वैज्ञानिकों ने मरुधरा को जीवसृष्टि का आदिकेन्द्र माना है। भूगर्भविज्ञान तथा पुरातत्त्वविज्ञान के अनुसार पृथ्वी पहले जलमग्न थी। उसकी सतह से क्रमशः जल हटा और उस जलमुक्त स्थान (मरुधरा) पर पहले-पहल मानव-सभ्यता का उद्भव हुआ। भारतीय संस्कृति की भी यही मान्यता है। पद्मपुराण के अनुसार सबसे पहले पुष्कर क्षेत्र का भूभाग जल से बाहर निकला –
उद्धृता पुष्करे पृथ्वी सागराम्बुगता पुरा।
पहले चरण में जलमुक्त पृथ्वी (मरुधरा) का विस्तार कुरुक्षेत्र तक हो गया। मरुधरा का वैदिक शर्यणावत् (अरावली) पर्वत विश्व का प्राचीनतम पर्वत माना गया है। उसकी घाटियों और गुफाओं में मानव-सभ्यता के आदि युग के अवशेष प्राप्त होते है। सरस्वती नदी से सिंचित होने के कारण उस भू-भाग को सारस्वत क्षेत्र कहा गया। सरस्वती नदी के तटों पर मन्त्रद्रष्टा ऋषियों ने वेदमन्त्रों का साक्षात्कार किया। सारस्वत क्षेत्र की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता मानी गई है। उसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विशेषता मातृपूजा है। सभ्यताकेन्द्रों से खुदाई में अनेक मृण्मयी मातृमूर्तियाँ मिली हैं जो वैदिक देवीतत्त्व-सिद्धान्त के अनुरूप हैं।
वैदिक ऋषियों ने देवी को माँ मानकर अम्बे! अम्बिके!! आदि संज्ञाओं से अभिहित किया है। देवी ने सृष्टि-प्रक्रिया के संचालन के लिए तीन रूप धारण किए जिन्हें महाकाली महालक्ष्मी और महासरस्वती कहा गया। एक वैदिक ऋषि ने सरस्वती नदी से सिंचित सारस्वत क्षेत्र में पूजित तीन देवीरूपों का बड़े भावभरे शब्दों में वर्णन किया है-
सरस्वती सारस्वतेरभिवाक् तिस्त्रो देवीर्वहिरेदं सदस्तु (ऋग्वेद 3,4,8)
वेदोत्तर साहित्य में वैदिक देवीसिद्धान्त ही विविध शैलियों में व्यक्त हुआ है। देवियांण स्तोत्र में देवीविषयक सिद्धान्त का सारभूत तत्त्व अति संक्षेप में व्यक्त हुआ है।
देवियांण में कुल 92 छन्द हैं। इसमें देवी के निराकार और साकार दोनों रूपों का वर्णन है। निराकार शक्ति रूप में वह सृष्टि की ‘करता हरता’ है। वह भक्तों के कल्याण के लिए साकार विग्रहरूप में हिंगलाज, आशापूर्णा, चामुण्डा, अम्बा, काली, भद्रकाली, दधिमथी, कैला, बीजासणी, जोगणी, जयन्ती, जमवाय, लक्ष्मी, कात्यायनी, शाकम्भरी, सच्चिया आदि नामों से स्थान-स्थान पर विराजमान है। भक्त अपने कुल की रक्षिका कुलदेवी के रूप में माता के इन रूपों को पूजते हैं।
देवियांण में नारी-गौरव की भारतीय परम्परा व्यक्त हुई है। जैसे दुर्गासप्तशती में ‘तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः’ कहकर स्त्रियों को देवी रूप बताया गया है, उसी तरह देवियांण में देवी के विविध नारीरूपों का गौरवपूर्ण वर्णन किया गया है। देवी श्रद्धामयी नारी के रूप में पुरुष में आस्थातत्त्व का संचार करके उसे तार देती है –
‘देवी नारी रे रूप पुरसां धुतारी’
कवि देवी को कन्या कहकर उसके मानवीय रूप के प्रति आस्था व्यक्त करता है। देवी के मातृरूप का तो अत्यन्त हृदयग्राही वर्णन है। देवी अपने अलौकिक रूप में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की जननी है। वह लौकिक नारी के रूप में वात्सल्यमयी माता है जो सन्तान पर वात्सल्य का अमृत बरसाती है –
‘देवी मात रे रूप तूँअम्मि श्रावे।’
जन्मदायिनी माता भगवती का साकार कृपामय स्वरूप है-
‘देवी कृपा रे रूप माता जणेता’
कवि श्री ईसरदास का परिचय –
देवियांण के रचयिता महात्मा ईसरदास एक कृष्णभक्त चारण परिवार में जन्मे थे। उनका जन्म सं. 1595 में मरुधरा राजस्थान के भाद्रेस गाँव में हुआ था। यह गाँव अब बाड़मेर जिले में है। बचपन में ही उनके माता-पिता का निधन हो गया। ईसरदास माता-पिता के बिना विषादग्रस्त रहने लगे तो चाचा आसानन्द उन्हें कुलदेवी सूँधा माता की शरण में ले गये। कुलदेवी की कृपा से उनका विषाद मिट गया। इसके बाद चाचा ने उन्हें द्वारका ले जाकर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के दर्शन कराए। ईसरदास रुक्मिणी और श्रीकृष्ण को माता-पिता मानकर उनकी भक्ति में तल्लीन रहने लगे। उनमें उच्चकोटि की काव्यप्रतिभा स्फुरित हो गई। उनकी काव्यप्रतिभा से प्रसन्न होकर गुजरात के एक राजा ने उन्हें अपना राजकवि बना लिया। ईसरदास ने कृष्णभक्ति के काव्य हरिरस की रचना करके द्वारका जाकर श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के सामने उसे पढ़कर सुनाया। रुक्मिणी माता ने प्रसन्न होकर उन्हें देवीभक्तिपरक काव्य की रचना के लिए प्रेरित किया।
ईसरदास माता के आत्मीय अनुरोध से भावविभोर हो गए। उन्होंने राजकवि के पद तथा गृहस्थाश्रम दोनों का त्याग कर दिया। वे अपने गाँव भाद्रेस आकर लूणी नदी के तट पर कुटिया बनाकर देवी की साधना करने लगे। साधना से प्राप्त अनुभूति और तत्त्वज्ञान को उन्होंने देवियांण नाम से शब्दों में ढाला तथा माता रुक्मिणी को सुनाने द्वारका पहुँच गए। रुक्मिणी माता ने काव्य को सुनकर आशीर्वाद देते हुए कहा- ‘‘ईसरदास! यह ‘देवियांण’ चण्डीपाठ के समान भक्तों को फलदायिनी होगी। ’’
महात्मा ईसरदास के जीवन की अनेक चमत्कारी घटनाओं के उल्लेख मिलते हैं। एक गरीब ग्वाला सांगा गौड़ वेणु नदी के तीव्र प्रवाह में बह गया था। महात्मा ईसरदास की चमत्कारी शक्ति से वह जीवित लौट आया। इसी प्रकार उन्होंने अमरेली के बीजा के युवा पुत्र करण को प्राणदान दिया। एक बार उन्हें द्वारकाधाम में श्री रणछोड़राय के मंदिर में दर्शनार्थ पहुँचने में विलम्ब हो गया। मन्दिर के पट बन्द देखकर उन्होंने श्रीरणछोड़राय से दर्शन देने का अनुरोध किया। मन्दिर के कपाट स्वतः खुल गए।
देवियांण की प्रसिद्धि महात्मा ईसरदास के जीवनकाल में ही फैलने लगी थी। इसका प्रचार मुख्य रूप से हस्तलेख व श्रुतिपरम्परा से हुआ। हस्तलेख व श्रुतिपरम्परा में प्रचलित काव्य में पाठान्तर होना स्वाभाविक है। देवियांण की भी यही स्थिति है। इसकी पाण्डुलिपियाँ भारत के विभिन्न स्थानों पर पाई जाती हैं। उनमें भी विभिन्न पाठान्तर उपलब्ध हैं।
देवियांण के तुलनात्मक पाठालोचन का काम सर्वप्रथम विख्यात साहित्यकार श्री शार्दूलसिंह कविया ने किया।
कवियाजी अध्यात्मनिष्ठ साहित्यकार व साधक हैं। उन्होंने देवियांण के मूल भाव को आत्मसात् किया है। वे देवियांण की महिमा बताते हुए लिखते हैं – ‘‘देवियांण एक दिव्य स्तवगान है। इसमें भक्तकवि ईसरदास तन्मय होकर मातेश्वरी का गुणगान करते है। देवियांण का भक्तिपूर्वक नित्य नियमित पाठ करने पर मातृसत्ता से सामीप्य का अनुभव होने लगता है। स्वतः पात्रता विकसित होती जाती है। अनन्यभाव से माँ की शरण ग्रहण कर लेने पर मन मातेश्वरी के प्रेम में मतवाला हो जाता है। अन्तर में आनन्द उमड़ने लगता है।’’
मेरे द्वारा अन्य प्रतियों के साथ कवियाजी द्वारा सम्पादित प्रति का भी पाठालोचन हेतु उपयोग किया गया है। मेरा मुख्य लक्ष्य देवियांण को छन्दों की मात्रा, गण, लय और गेयता के अनुरूप शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना है। पाठ की प्रस्तुति में पौराणिक सन्दर्भ, लोकमान्यता तथा अर्थानुशीलन का भी आश्रय लिया है। पाठालोचन की इस प्रक्रिया में भगवती की कृपा तथा अन्तःकरण की प्रवृत्ति ही प्रेरक व अवलम्बन हैं। देवियांण को भली प्रकार से समझने के लिए इसका हिन्दी अनुवाद भी आप सभी के लिए प्रस्तुत कर रहा हूँ।
विनीत
डाॅ. रामकुमार दाधीच
देवियांण
छन्द अडल
करता हारता श्री ह्रींकारी, काली कालरयण कौमारी,
ससि-सेखरा सिधेसरि नारी, जग नीमवण जयो जडधारी ।। 1।।
हे देवी! आप जगत् की सृष्टि और संहार करने वाली हो। श्रीं और ह्रीं बीजमन्त्र आपके वाचक हैं। आप काल का प्रभाव नष्ट करने वाली काली हो। कौमारी चन्द्रशेखरा और सिद्धेश्वरी आपके ही नाम हैं। लोक में नारी आपका ही साकार रूप है। जगत् आपको नमन करता है। जड़ (असत्) तत्त्व को धारण करने वाली सत्स्वरूपिणी माँ ! आपकी जय हो।
धवा धवलगिर धव-धू धवला, क्रसना कुळजा कैला कमला,
चलाचला चामुण्डा चपला, विकटाविकट भू-बाला विमला ।। 2।।
हे देवी! आप धवलगिरि की स्वामिनी तथा दुर्जनों को कंपित करने वाली हो। आप श्वेत और श्याम वर्णों से शोभित हो। आप भक्तहित के लिए विभिन्न कुलों में अवतरित होती हो। कैला, कमला, चला, अचला, चामुण्डा और चपला आपके ही रूप हैं। विकटासुर का वध करने के लिए विकट रूप धरने वाली तथा पृथ्वी के गर्भ से प्रकट होने वाली दधिमथीमाता आप ही हो।
सुभगा सिवा जयंती अंबा, परिया परपन्नं पालंबा,
पीं सां चिति साखणि प्रतिबंबा, अथ आराधीजे अवलंबा ।। 3।।
हे देवी अम्बा ! आप सौभाग्यदायिनी तथा कल्याणमयी जयन्ती माता हो। आप पराशक्ति तथा शरणागत का पालन करनेवाली हो। पीं बीजमन्त्र आपकी पूर्णता का वाचक है। सां बीजमन्त्र दुर्गासप्तशती पाठ का फल देने वाले स्वरूप का वाचक है। आप साक्षीस्वरूपा तथा जगत् का आधार चितितत्त्व हो। जगत् के रूप में आप ही अपना प्रतिबिम्ब हो।
शं कालिका सारदा सचया, त्रिपुरा तारणि तारा त्रनया,
ओहं सोहं अखया अभया, आई अजया विजया उमया ।। 4।।
हे देवी ! शं बीजमन्त्र आपके शक्तिस्वरूप का वाचक है। आप कालिकामाता शारदामाता, सच्चियामाता, त्रिपुरामाता व तारिणी तारामाता हो। आप ॐ, सोऽहं, अक्षया, अभया, आई , अजया, विजया और उमा नामों से विख्यात हो।
छन्द भुजंगी
देवी उम्मया खम्मया ईसनारी, देवी धारणी मुण्ड भूवन्न धारी,
देवी सब्बदां रूप ओं रूप सीमा, देवी वेद पारख्ख धरणी ब्रहम्मा ।।1।।
हे देवी ! आप ईश्वरी उमा, क्षमा, मुण्डधारिणी और त्रिभुवनधारिणी हो। शब्द ब्रह्म ॐ आपका ही वाचक है। आप सौन्दर्य की सीमा हो। वेदज्ञ ब्रह्मा को धारण करने वाली आप ही हो।
देवी कालिका माँ नमो भद्रकाली, देवी दूरगा लाघवं चारिताली,
देवी दानवां काळ सुर्पाळ देवी, देवी साधकं चारणं सिद्ध सेवी ।। 2।।
हे कालिका, भद्रकाली और दुर्गा रूपों में विद्यमान देवी माँ! आपको प्रणाम है। आपके चरित अनन्त हैं। आप दानवों का संहार तथा देवताओं का पालन करती हो। साधक सिद्ध और स्तुतिगायक आपकी आराधना करते हैं।
देवी जख्खणी लख्खणी देव जोगी,देवी निर्मळा भोज भोगी निरोगी,
देवी मात जीनेसुरी क्रन्नि मेहा, देवी देव चामुंड संख्याति देहा ।। 3।।
हे देवी! आप जाखणमाता, जीणेश्वरीमाता और मेहाई करणी माता के रूप में विराजमान हो। सब पर आपकी कृपादृष्टि रहती है। देवता, निर्मल मन वाले आधि-व्याधिमुक्त योगी तथा भोज्य पदार्थों के आसक्त भोगी जन सब आपके आराधक हैं। हे चामुण्डा! आपके दिव्य स्वरूप असंख्य हैं।
देवी भंजणी दैत सेना समेता, देवी नेतना तप्पना जैय नेता,
देवी कालिका कुल्लपा प्रेमकामा,देवी रेणुका सम्मला रामरामा ।। 4।।
हे देवी ! आपने दैत्यों को उनकी सेना के साथ नष्ट कर दिया । आप ही नेतना, तप्पना, देवों की सेनानी, कालिका, कुलपालिका, रेणुका , सम्मला तथा सीता हो। आप भक्तों से केवल प्रेम की कामना ही करती हो। आपकी जय हो।
देवी मालणी जोगणी दत्त मेधा, देवी वेधणी देव दैतां उवेधा,
देवी कामही लोचना हांम कांमा, देवी वासनी मेर माहेस वामा ।। 5।।
हे देवी ! आप ही श्रीमालदेश की आराध्या महालक्ष्मी हो। आप ही जोगणीमाता के रूप में विराजमान हो। आपने ही दत्तात्रेय और मेधा के रूप में शक्तिसिद्धान्त का प्रचार किया। आप दैवी प्रकृति की पोषिका और आसुरी प्रकृति की विनाशिका हो। हे कामेही! हे लोचना! आप बल से अनुराग रखने वाली हो। आप महेश की अर्द्धांगिनी पार्वती के रूप में पर्वत पर निवास करती हो।
देवी भूतिदा सम्मरी बीस भूजा, देवी त्रीपुरा भैरवी रूप तुल्जा,
देवी राखसं धोम रे रक्त रूती, देवी दुर्गमं वीकटा जम्मदूती ।। 6।।
हे देवी! ऐश्वर्यदायिनी सम्मरायमाता, बीसहत्थमाता, तुलजामाता और त्रिपुरा भैरवीमाता आपके ही रूप हैं। धूम्रलोचन असुर को आपने ही रक्तहीन किया था। विकट असुर दुर्गम की मृत्यु बनकर आप ही शाकम्भरी के रूप में प्रकट हुई।
देवी गौरि रूपा अखां नव्व निद्धि, देवी सक्कळा अक्कळा स्रब्ब सिद्धि,
देवी व्रज्ज वीमोहणी वोमवांणी, देवी शीतला मूंदला कत्तियांणी ।।7।।
हे देवी! गौरीरूप में आप अष्ट सिद्धि और नवनिधि प्रदान करती हो। आप अकला और सकला हो। योगमाया के रूप में कंस के हाथ से छूटकर, आकाश में जाकर उसे मृत्यु की सूचना देने वाली तथा ब्रजमण्डल को अपनी महिमा से मुग्ध करने वाली कैला मैया आप ही हो। शीतलामाता, मूंदलमाता और कात्यायनीमाता आपके ही रूप हैं।
देवी चंद्रघंटा महम्माय चण्डी, देवी वीसला अन्नला वड्डवड्डी;
देवी जम्मघंटा वदीजे बडंबा, देवी साकणी डाकणी रूढ सब्बा ।। 8।।
हे देवी! चन्द्रघण्टा, महामाया चण्डी, यमघण्टा और बड़वासन आपके ही नाम हैं। बीसल माता, अन्नपूर्णामाता और बरवड़ीमाता के रूप में आप ही विराजमान हो। असुरों के विनाश हेतु आपने ही शाकिनी डाकिनी आदि को प्रकट किया था। आप सर्वरूपा हो।
देवी कट्टकां हाकणी वीर कंव्री, देवी मात वागेसरी मात गव्री;
देवी दंडणी देव वैरी उदंडा, देवी वज्जया जैय दैतां विखंडा ।। 9।।
हे देवी! असुर सेना को भगा देने वाली कौमारी आप ही हो। आप सबकी माता, वाणी की देवी तथा महागौरी हो। आप देवताओं के उद्दण्ड वैरियों को दण्डित करती हो। हे दैत्यविनाशिनी विजया! आपकी जय हो।
देवी खेचरी भूचरी भद्रखेमा; देवी पद्मणी सोभणी कुल्लप्रेमा,
देवी जम्मवा मख्ख आहूति ज्वाला, देवी वाहनी मंत्र लीला विसाला।।10।।
हे देवी ! आप ही गब्बरवासिनी (खेचरी) अम्बामाता, बहुचरा (भूचरी) माता, भादरियाराय (भद्र) माता और खींवज (खेमा) माता हो। आप आराधक कुल से प्रेम करने वाली महालक्ष्मी के रूप में शोभायमान हो। यज्ञ में अर्पित आहुति को ग्रहण करने वाली जमवाय माता आप ही हो। आप ही ज्वालामाता हो। आप मन्त्रवाहिनी तथा लीला से विशाल रूप धारण करने वाली हो।
देवी मंगला बीजला रूप मध्धे, देवी अब्बला सब्बला वाम अध्धे;
देवी स्रग्ग सूं ऊतरी सिव्व माथे, देवी सग्रसुत् हेत् भगीरथ्थ साथे ।। 11।।
हे देवी! मंगला और बीजासणी रूपों में आप ही विराजमान हो। आपकी आराधना से अबला नारी सबला हो जाती है। आप गंगारूप में स्वर्ग से शिव के मस्तक पर उतरी तथा भगीरथ के साथ जाकर सगर के पुत्रों को तार दिया।
देवी हारणी पाप श्री चक्र रूपा, देवी पावनी पत्तितां तीर्थ भूपा;
देवी पुण्य रूपं देवी प्रम्म रूपं, देवी क्रम्म रूपं देवी ध्रम्म रूपं ।।12।।
हे देवी ! आप श्री चक्र के रूप में पापहारिणी हो। आप तीर्थराज प्रयाग के रूप में पतितों को पावन करती हो। आप पुण्यरूपा, प्रेमरूपा, कर्मरूपा और धर्मरूपा हो।
देवी तीर्थ देख्यां अघं ओघ नासे, देवी आतमानंद हीये हुलासे;
देवी देवता स्रव्व तोमां निवासे, देवी सेवते सीव सारूप भासे ।।13।।
हे देवी ! आपके तीर्थों का दर्शन करने से पापसमूह नष्ट हो जाते हैं तथा हृदय में आत्मानन्द का उल्लास छा जाता है। सारे देवी-देवता आप में ही निवास करते हैं। साधक आपकी आराधना से कल्याणमयी सारूप्य-मुक्ति को पा लेते हैं।
देवी नाम भागीरथी नाम गंगा, देवी गंडकी गग्गरा रामगंगा;
देवी सर्सती जम्मना सक्र सिद्धा, देवी त्रीव्यणी त्रिस्थली ताप रुद्धा ।।14।।
हे देवी! सन्तापनाशिनी भागीरथी गंगा, गंडकी, घाघरा, रामगंगा, सरस्वती, यमुना, शक्रा, त्रिवेणी, त्रिस्थली…
देवी सिन्धु गोदावरी माहि संगा, देवी गोमती चम्मला बाणगंगा;
देवी नर्मदा सारजू सद्द नीरा, देवी गल्लका तुंगभद्रा गभीरा ।।15।।
सिन्धु, गोदावरी, माही, गोमती, चम्बल, बाणगंगा, नर्मदा, सरयू, सदानीरा, गल्लका, तुंगभद्रा, गंभीरा….
देवी काविरी ताप्ति क्रस्ना कपीला, देवी सोण सत्लज्ज भीमा सुसीला;
देवी भोम गंगा देवी वोम गंगा, देवी गुप्त गंगा सुची रूप अंगा ।।16।।
कावेरी, ताप्ती, कृष्णा कपिला, सोण, सतलज, भीमा, सुशीला, भूमिगंगा, आकाशगंगा और गुप्तगंगा ये सब नदियाँ तुम्हारे विराट् स्वरूप के पावन अंग हैं।
देवी नीझरं नव्व सौ नद्दि नाळा, देवी तोय ते तव्व रूपं तुहाळा;
देवी मथ्थुरा माइया मोक्षदाता, देवी अंवती अज्जुध्या अघ्घहाता ।।17।।
हे देवी ! नौ सौ नदियों, बरसाती नालों व झरनों का जल आपका ही तीर्थवतार है। पापहारिणी और मोक्षदायिनी मथुरा, माया, अवंती, अयोध्या…
देवी तूहि द्वारामती कांचि कासी, देवी सातपूरी परम्मा निवासी;
देवी रंग रंगे रमे आप रूपे, देवी घृत्त नैवेद ले दीप धूपे ।। 18।।
द्वारका कांची और काशी ये सात पुरियाँ तुम्हारे दिव्य धाम हैं। हे देवी! आपके अलौकिक सौन्दर्य के रंग में रंगे भक्त घृत धूप-दीप और नैवेद्य से आपकी पूजा करते हैं।
देवी रग्त बंबाऴ गऴमाऴ रुंडा, देवी मुण्ड पाहारणी चंड मुंडा;
देवी भाव स्वादे हसंते वकत्रे, देवी पाणपाणां पिये मद्यपत्रे ।।19।।
हे देवी ! चण्ड और मुण्ड के साथ युद्ध के समय आपने भीषण प्रहारों से रक्तपात किया था। आपने गले में मुण्डमाला धारण की थी। आप मधुपान करते हुए अट्टहास कर रही थीं।
देवी स्हैसरं लक्ख कोटीक साथे, देवी मंडणी जुद्ध मैखास माथे;
देवी चापड़े चंड नै मुंड चीना, देवी देव द्रोही दुहूं धम्मि दीना ।। 20।।
हे देवी ! जब आपने लोद्रोही महिषासुर के साथ युद्ध किया तब हजारों, लाखों करोड़ों जनों की भावनाएँ आपके साथ जुड़ी थीं। आप रणभूमि में चण्ड-मुण्ड को देखते ही उन पर टूट पड़ी थी। आपने दोनों देवद्रोहियों को धराशायी कर दिया था।
देवी धूम्रलोचन्न हूंकार धोस्यो, देवी जाबड़ा में रकत्बीज सोस्यो;
देवी मोडि़यो माथ नीसुंभ मोड़े, देवी फोडि़यो सुंभ जीं कुंभ फोड़े ।। 21।।
हे देवी ! आपने धूम्रलोचन को हुंकार से ही ध्वस्त कर दिया था। रक्तबीज को दान्तों में दबाकर उसका रक्तपान कर लिया था। आपने युद्धभूमि में निशुम्भ को मस्तक मरोड़कर मार डाला तथा शुम्भ का मस्तक माटी के घड़े की तरह फोड़ दिया।
देवी सुंभ नीसुंभ दर्पांध छळ्या, देवी देव स्त्रग् थापिया दैत दळ्या,
देवी संघ सूरां तणां काज सीधा, देवी क्रोड़ तेतीस उच्छाह कीधा ।। 22।।
हे देवी ! घमण्डी शुम्भ-निशुम्भ अपने अभिमान से ही छले गये। आपने दैत्यों का दलन करके स्वर्ग में देवताओं का राज्य पुनः स्थापित कर दिया। कार्य सिद्ध होने पर तेतीस करोड़ देवी-देवताओं ने महान् उत्सव मनाया था।
देवी गाजता दैत ता वंस गम्या, देवी नव्व खंडं भुवन् तुज्झ नम्या;
देवी वन्न सम्माधि सूरथ्थ व्रन्नी, देवी पूजते आसपूर्णा प्रसन्नी ।। 23।।
हे देवी ! आपने गरजने वाले दैत्यों के वंश खत्म कर दिए। तब नौ खण्डों तथा चौदह भुवनों के प्राणियों ने कृतज्ञता से आपको नमन किया था। वन में भटकते राजा सुरथ और वैश्य समाधि के समक्ष मेधा मुनि ने आपकी महिमा का वर्णन किया। दोनों ने आप आशापूर्णा को पूजकर प्रसन्न किया।
देवी वैस सूरथ्थ रा दोह वळ्या, देवी स्तव्वनं तो कियां सोक टळ्या;
देवी मारकंडे महापाठ बांध्यो, देवी लग्गि ऊपाय नो पार लाध्यो ।।24।।
हे देवी ! राजा सुरथ और वैश्य समाधि का भाग्यदोष मिट गया। अभिलाषा पूरी होने से उनका दुःख टल गया। उन्होंने कृतज्ञता से आपकी स्तुति की। मार्कण्डेय मुनि ने आपकी महिमा के महान् ग्रन्थ की रचना की, पर वे भी उपाय करने के बावजूद महिमा का पार न पा सके । वे महिमा व कृपा का पूरा वर्णन नहीं कर सके। आपकी महिमा अपार है।
देवी सप्तमी अष्टमी नौम दूजा, देवी चौथ चौदस्स पूनम्म पूजा;
देवी सर्सती लख्खमी मात काळी,देवी कन्न विस्नु ब्रहम्मा कपाळी ।। 25।।
हे कन्यारूपिणी देवी! सप्तमी, अष्टमी, नवमी, द्वितीया, चतुर्थी, चतुर्दशी और पूर्णिमा आपकी पूजा की तिथियाँ हैं। हे माता ! सरस्वती, लक्ष्मी, काली, ब्रह्मा, विष्णु और महेश आपके ही रूप हैं।
देवी रग्त नीलंमणी सीत रंगं, देवी रूप अंबार विस्रूप अंगं;
देवी बाल यूवा वृधं वेस बाळी, देवी विस्व रख्वाल बीसां भुजाळी ।। 26।।
हे अम्बा देवी ! लाल, श्वेत और श्याम आपके तीन प्रिय रंग हैं। आपके विराट् स्वरूप में इस विश्व का स्वरूप एक अंग की तरह समाया हुआ है। आरासुर पर्वत धोलामंढ में विराजमान आप प्रातः काल बालिका, मध्याह्न में युवती तथा सायं वृद्धा के रूप में दर्शन देती हो। हे बीस भुजा वाली माता, विश्व की रक्षिका आप ही हो।
देवी वैस्णवी महेसी ब्रहमाणी, देवी इन्द्रणी चंद्रणी रं नराणी
देवी नारसिंघी वराही विख्याता, देवी इळा आधार आसूर हाता ।। 27।।
हे देवी ! आप वैष्णवी, माहेश्वरी, ब्रह्माणी, ऐन्द्री, इन्दुरूपिणी, नारायणी, नारसिंही, वाराही नामों से विख्यात हैं। हे असुरविनाशिनी ! पृथ्वी का आधार आप ही हैं।
देवी कंवरी चण्डिका विज्यकारी, देवी कुब्बेरी भैरवी क्षेमकारी;
देवी मृग्गेसं व्रख्ख हस्ती मईखे, देवी पंख केकी गरुड़ं सपंखे ।। 28।।
हे देवी ! विजयकारिणी, चण्डिका कौमारी, कुबेरी, भैरवी, क्षेमकारी और पंखिनी (नागणेचिया) आपके ही रूप हैं। सिंह, हाथी, महिष, मयूर और गरुड़ आपके वाहन हैं।
देवी रथ्थ रेवंत सारंग राजे, देवी वीम्मणं पालखी पीठ व्राजे;
देवी प्रेत आरूढ आरूढ पद्मं, देवी सागरं सुम्यरू गूढ सद्मं ।। 29।।
हे देवी! आप रथ, अश्व, राजहंस , विमान और पालकी पर विराजमान होती हो। आप कभी प्रेत पर सवार होती हो तो कभी कमल पर विराजती हो। आप क्षीरसागर में तथा सुमेरु पर्वत की गुफाओं में विराजती हो।
देवी वाहनं नाम कैवल्लवाळी; देवी खग्ग सूळंधरा खप्पराळी;
देवी कोप रे रूप में काळजेता, देवी कृप्पा रे रूप माता जणेता ।। 30।।
हे कैवल्यदायिनी कैवाय देवी ! आप खड़ग त्रिशूल और खप्पर धारण करती हो। आप कोप करने पर काल को जीत लेती हो। जगत् में जन्मदायिनी माता आपका कृपावतार ही है।
देवी जग्त कर्त्तार भर्त्ता संहर्ता, देवी च्राचरं जग्गतं में विचर्ता;
देवी चार धामं स्थलं आठ साठै, देवी पावियै एक सौ पीठ आठै ।। 31।।
हे देवी! आप जगत् की सृष्टि पालन और संहार करने वाली हो। चराचर जगत् में आप व्याप्त हो। चार धाम, अड़सठ तीर्थ और एक सौ आठ शक्तिपीठों में आपके दिव्य दर्शन प्राप्त होते हैं।
देवी माइ हिंगोऴ पच्छम्म माता, देवी देव देवाधि वर्दान दाता;
देवी गंद्रपां वास अर्बद्द ग्रामै, देवी थांण डीड्यांण सूसाण ठांमै ।। 32।।
हे देवी! आप पश्चिम दिशा में हिंगलाज माता के रूप में विराजती हो। वहाँ पधारे हुए देवाधिदेव भगवान् श्रीराम को आपने ब्रह्महत्यादोष से मुक्ति का वरदान दिया था। आप गन्धर्वों के आवास सुगन्धाचल पर सूंधामाता के रूप में, आबू पर्वत पर अर्बुदा माता के रूप में, डीडवाणा नामक स्थान पर पाडलमाता के रूप में तथा सूसाणीपीठ में सूसाणीमाता के रूप में विराजमान हो।
देवी गड्ढ कोटे गरन्नार गोखे, देवी सिंधु वेळा सवालख्ख सोखे;
देवी कामरू पीठ अघ्घौर कुंडै, देवी खंखरै द्रुम्म कस्मेर खंडै ।। 33।।
हे देवी! आप गढ व कोट में रक्षिका देवी के रूप में प्रतिष्ठापित हो। गिरिनार पर्वत का शिखर आपका स्थान है। आप सवालख क्षेत्र में शक्रा नदी के तट पर शाकम्भरी माता के रूप में, कामरूप पीठ में कामाख्यामाता के रूप में तथा अघोरकुण्ड के पास हिंगलाजमाता के रूप में विराजमान हो। आप कश्मीर में पत्रहीन वृक्षों के बीच क्षीर भवानी के रूप में विराजती हो।
देवी उत्तरा नागणी प्रं उजेणी, देवी भ्वांल भर्रूच्च भट्नेर भेणी;
देवी देव जालंधरी सप्त दीपै, देवी कंदरे सख्खरै बाव कूपै ।।34।।
हे देवी ! आप उत्तर में नागणेचिया माता के रूप में विराजती हो। उज्जैन, भंवाल, भरूच भटनेर और भेणी में आपके भव्य मन्दिर हैं। जालंधर में आपका मन्दिर है सातों द्वीपों की कन्दराओं में पर्वत-शिखरों पर तथा बावडि़यों व कुओं के पास आपके मन्दिर हैं।
देवी मेटळीमाळ धूमै गरब्बे; देवी काछ कन्नोज आसांम अम्बे;
देवी सब्ब खंडे रसा गीरिश्रृंगे, देवी वंकड़े दुर्गमे ठाँ विहंगे ।। 35।।
हे अम्बा देवी ! गरबा नृत्य में मण्डलाकार घूमती हुई श्रद्धालु स्त्रियों के बीच अदृश्य रूप में पधारकर आप नृत्य किया करती हो। देश के कच्छ, कन्नौज, आसाम आदि विभिन्न क्षेत्रों में नदी तटों, पर्वतशिखरों तथा दुर्गम वनखण्डों में आपके शक्तिपीठ हैं।
देवी बप्प रै डूंगरै रन्न बन्नै, देवी थूंबड़ै लींबड़ै तन्नु थन्नै;
देवी झंगरै चाचरै झब्ब झब्बै, देवी अंबरै अंतरीखै अलंबै ।। 36।।
हे देवी अम्बा! आपने पर्वत पर साधनारत राणा बप्पा को वरदानस्वरूप दिव्य बाण दिया। आप मरुस्थल के टीलों में तन्नु राव की आराध्या तन्नोट माता के रूप में थान में विराजती हो। वृक्षों से घिरे हुए आपके चाचर के प्रकाश से अन्तरिक्ष जगमगाता है। सबका सहारा आप ही हो।
देवी निर्झरे तर्वरे नग्ग नेसे, देवी दिस्स अव्दिस्स देसे विदेसे;
देवी सागरं बेटड़े आप संगे, देवी देहरे गेह देवी दुरंगे ।। 37।।
हे देवी! मैं झरने, वृक्षसमूह, पर्वत, सागरतट, मन्दिर, दुर्ग या घर जहाँ भी जाता हूँ, आपको अपने साथ पाता हूँ। सब दिशाओं और देश-विदेश में आप सर्वत्र विराजमान हो।
देवी सागरे सीप में अम्मि श्रावे, देवी पीठ ते कोटि पच्चास पावे;
देवी वेळसा रूप सामंद वाजे, देवी बादळां रूप गैणांग गाजे ।। 38।।
हे देवी! आप के शक्तिपीठ असंख्य हैं। सागर में स्थित सीप में स्वाति नक्षत्र की अमृतवर्षा आप ही हो। आप समुद्र में लहरों के रूप में हिलोरें लेती हो तथा आकाश में बादलों की घटा के रूप में गरजती हो।
देवी मंगला रूप तूं ज्वाळमाळा, देवी कंठळा रूप तूं मेघ काळा;
देवी अन्नलं रूप आकास भम्मे, देवी मानवां रूप मृत्लोक रम्मे ।। 39।।
हे देवी! आप अग्नि में ज्वाला के रूप में तथा काले बादलों में बिजली के रूप में शोभायमान हो। आकाश में आप तेज के रूप में तथा मृत्युलोक में सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानव के रूप में विराजमान हो।
देवी पन्नगां रूप पाताळ पेसे, देवी देवतां रूप तूं स्त्रग्ग देसे;
देवी प्रम्म रे रूप पिंड् पिंड पीणी, देवी सून रे रूप ब्रह्मांड लीणी।। 40।।
हे देवी ! देवता और नाग आपके ही रूप हैं। शेषनाग के रूप में पाताल में निवास करके पृथ्वी को धारण करने वाली आप ही हो। स्वर्गलोक में देवेन्द्र्र के रूप में रहकर वर्षा करने वाली आप ही हो। प्रेमतत्त्व के रूप में आप प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान हो। आपके आकाशस्वरूप में सम्पूर्ण ब्रह्मांड समाया हुआ है।
देवी आतमा रूप काया चलावे, देवी काय रे रूप आतम् खिलावे;
देवी रूप वासन्त रे वन्न राजे, देवी आग रे रूप तूं वन्न दाझे ।। 41।।
हे देवी ! आप आत्मा के रूप में कारण, सूक्ष्म और स्थूल शरीरों का संचालन कर रही हो तथा काया के रूप में आत्मा को बन्धन और मुक्ति का खेल खिला रही हो। वसन्त के रूप में आप वन को प्राकृतिक सौन्दर्य से सुशोभित करती हो तथा दावाग्नि के रूप में उसे जलाकर भस्म कर देती हो।
देवी नीर रे रूप तूं आग ठारे, देवी तेज रे रूप तूं नीर हारे;
देवी ज्ञान रे रूप तूं जग्त व्यापी, देवी जग्त रे रूप तूं धर्म थापी ।। 42।।
हे देवी ! आप जल के रूप में आग को बुझा देती हो तथा सूर्य के तेज के रूप में जल का हरण करती रहती हो। आप ज्ञान के रूप में सारे संसार में व्याप्त होे। आप जीणमाता, खोडि़यारमाता, बैचरामाता आदि रूपों में संसार में जन्म लेकर धर्म की स्थापना करती हो।
देवी धर्म रे रूप शिव्शक्ति जाया, देवी शीवशक्ती रुपे सत्त माया;
देवी सत्त रे रूप तूं सेस मांही, देवी सेस रे रूप सीसं धराही।। 43।।
हे देवी! आपने गृहस्थ-धर्म की स्थापना के लिए दम्पती के रूप में शिव-शक्ति को उत्पन्न किया। शिव-शक्ति के रूप में आपकी माया सत्य प्रतीत होती है। आप सत्त्व के रूप में शेषनाग में समाहित हैं तथा शेषनाग के रूप में पृथ्वी को सिर पर धारण किए हुए हैं।
देवी धर्रती रूप खम्मा कहावे, देवी खम्मया रूप तूं काळ खावे;
देवी काळ रे रूप उद्दंड वाये, देवी वायु जळ् रूप कल्पांत थाये ।। 44।।
हे देवी! पृथ्वी के रूप में आप क्षमा कहलाती हो तथा क्षमा के रूप में आप काल को भी प्रभावहीन कर देती हो। कालक्रम से कल्पान्त के हेतु के रूप में प्रलयंकर पवन का रूप धारण करने वाली तथा उसके प्रभाव से पृथ्वी को जलमग्न कर देेने वाली आप ही हो।
देवी कल्प रे रूप कल्पांत दीपे, देवी विस्नु रे रूप कल्पांत जीपे;
देवी नींद रे रूप चख् विस्न रूढी, देवी विस्न रे रूप तूं नाभ पूढ़ी ।। 45।।
हे देवी! कल्पान्त के समय भी आप स्थिर और सुनिश्चित नियम (ऋत) के रूप में विद्यमान रहती हो। विष्णु के रूप में कल्पान्त के समय क्षीरसागर मेें शयन करने वाली आप ही हो। तब आप विष्णु के नेत्रों में योगनिद्रा के रूप में व्याप्त रहती हो तथा आपकी सृजनशक्ति विष्णु के नाभिकमल में अक्रियावस्था में रहती है।
देवी नाभ रे कंम्ळ ब्रह्मा निपाया, देवी बिस्नु रे रूप मध्कीट जाया;
देवी रूप मध्कीट ब्रह्मा डराये, देवी ब्रह्मा रे रूप विस्नू जगाये।। 46।।
हे देवी! आपने ही विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा को उत्पन्न किया। मधु कैटभ को उत्पन्न करने वाली विष्णुरूपा आप ही हो। मधु-कैटभ के रूप में ब्रह्मा को डराने वाली तथा ब्रह्मा के रूप में विष्णु को जगाने वाली आप ही हो।
देवी विस्नु रे रूप जंघा वधारे, देवी मध्वरी रूप मध्कीट मारे;
देवी साविती गायत्री प्रम्म ब्रह्मा, देवी सांच तूं मेळिया जोग सम्मा ।। 47।।
हे देवी ! मधु और कैटभ दैत्यों को मारने के लिए जंघा का विस्तार करने वाले तथा मधु-कैटभ को मारने वाले विष्णु आप ही हो। गायत्रीमंत्र के वर्ण्य विषय परम ब्रह्म सविता की क्रियाशक्ति आप ही हो। सत्य तत्त्व से मिलाने वाली समत्वरूपा योगसाधना आप ही हो।
देवी सूनि रे दूध तें खीर रांधी, देवी मारकंड् रूप तें भ्रांत बांधी;
देवी मंत्र मूलं देवी बीज बाला, देवी वापणी स्रव्व लीला विसाला ।। 48।।
हे देवी! आपने मार्कण्डेय मुनि की मायाजन्य भ्रान्ति को मिटाने के लिए किरातकन्या का रूप धारण किया तथा कुतिया के दूध से खीर पकाने की लीला की। आप ही मन्त्रों का मूलतत्त्व तथा बीजाक्षर हो। हे बाला! आप सर्वव्यापी हो। आापके लीलाचरित्र अपार हैं।
देवी आद अन्नाद ओंकार वांणी, देवी हेक हंकार ह्रींकार जांणी,
देवी आप ही आप आपां उपाया, देवी जोग निद्रा भवं तीन जाया ।।49।।
हे देवी ! आप आदि माता तथा नित्यस्वरूपा हो। ॐ, हें, हं, ह्रीं आदि आपके वाचक बीज मन्त्र हैं। आपने स्वयं ही, स्वयं से , स्वयं को जगत् के रूप में व्यक्त किया है। तीनों लोक आपकी योगनिद्रा के प्रभाव से ही उत्पन्न होते हैं।
देवी मन्नछा माइया जग्ग माता, देवी ब्रह्म गोविन्द संभू विधाता;
देवी सिद्धि रे रूप नौ नाथ साथे, देवी रिद्धि रे रूप धन्राज हाथे ।। 50।।
हे देवी! आप ही मनसामाता और जगत् माता हो। आप ही ब्रह्म हो। त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु और महेश की माता आप ही हो। नौ नाथों की सिद्धि तथा धनराज कुबेर की ऋद्धि आप ही हो।
देवी वेद रे रूप तूं ब्रह्म वांणी, देवी जोग रे रूप मच्छंद्र जांणी;
देवी दान रे रूप बळ्राव दीधी, देवी सत्त रे रूप हर्चंद सीधी ।। 51।।
हे देवी! आप वेद वाणी के रूप में व्यक्त पर ब्रह्म हो। आप ही योगावतार मछंदरनाथ हो। दैत्यराज बलि की दानवीरता तथा राजा हरिश्चन्द्र की सत्यनिष्ठा की सिद्धि के मूल में आपकी कृपा ही थी।
देवी रढ्ढ़ रे रूप दस्कंध रूठी, देवी सील रे रूप सौमित्र तूठी,
देवी सारदा रूप पींगल् प्रसन्नी, देवी मांण रे रूप दुर्जोण मन्नी ।। 52।।
हे देवी! रावण के व्यक्तित्व में दृढ निश्चय तथा दुर्योधन के स्वभाव में मान दोनों सद्गुण आपकी कृपा के फल थे। वे बुराई के मार्ग पर चले तो रावण का दृढनिश्चय दुराग्रह के रूप में तथा दुर्योधन का मान अभिमान में बदल गया। आपकी कृपा खिन्नता में परिणत हो गई। लक्ष्मण ने अच्छाई के रास्ते पर चल कर आपकी देन शीलव्रत का सदुपयोग किया तो वे महान् हो गए। पिंगल ने आप द्वारा प्रदत्त विद्या का सदुपयोग किया तो वे छन्दशास्त्रप्रणेता के रूप में अमर हो गए।
देवी गद्द रे रूप भुज् भीम साई, देवी सांच रूपं जुधीठल्ल ध्याई;
देवी कुन्ति रे रूप तें कर्ण कीधा, देवी सास्तरां रूप सैदेव सीधा ।। 53।।
हे देवी! आप गदा के रूप में भीम के हाथों में तथा सत्य के रूप में युधिष्ठिर की वाणी में सुशोभित हुई। आपने कुन्ती के रूप में दानवीर कर्ण को जन्म दिया। आपने सहदेव को शास्त्रज्ञान दिया।
देवी बाण रे रूप अर्जून बन्नी, देवी द्रोपदी रूप पांचां पतन्नी;
देवी पांच ही पांडवां पूर तूठी, देवी पांडवी कौरवां पूर रूठी ।। 54।।
हे देवी! आपने अर्जुन को बाणविद्या की सिद्धि प्रदान की। आप धर्मनिष्ठ पांचों पाण्डवों पर प्रसन्न होकर द्रौपदी के रूप में उनकी पत्नी बनी तथा अधर्मी कौरवों से रूठकर उनके विनाश का कारण बनी।
देवी पांडवां कौरवां रूप बांधा, देवी कौरवां भीम रे रूप खाधा;
देवी अर्जुणं रूप जैद्रथ्थ मार्यो, देवी जैद्रथ्थं रूप सौभद्र टार्यो ।। 55।।
हे देवी! कौरव आपके ही अंशरूप थे, पर वे अनीति की राह पर चले और पाण्डवों को वन में भेज दिया। सदाचारी भीम भी आपका ही रूप था। उसके रूप में आपने अन्यायी कौरवों को नष्ट कर दिया। जयद्रथ आपका ही अंश था जिसने शक्ति का दुरुपयोग करके अभिमन्यु को चक्रव्यूह से निकलने से रोका। तब आपने ही अर्जुन के रूप में जयद्रथ को मारा।
देवी रेणुका रूप तें राम जाया, देवी राम रे रूप खत्री खपाया;
देवी खत्रियां रूप दुज्राम जीता, देवी रूप दुज्राम रे रोष पीता ।।56।।
हेे देवी! आपने ही रेणुका के रूप में परशुराम को जन्म दिया तथा आपने ही परशुराम के रूप में सहस्त्रबाहु आदि अभिमानी क्षत्रियों का संहार किया। जब परशुराम को अपनी शक्ति का अभिमान हुआ तो आपने राम के रूप में क्षत्रियवंश में अवतार लेकर उनका अभिमान मिटाया। तब श्रीविद्या के साधक परशुराम के रूप में आपने क्रोधरहित जीवन का आदर्श प्रस्तुत किया।
देवी मातृका रूप तें जग्त जाता , देवी जोगणी रूप तूं जग्त माता;
देवी मात रे रूप तूं अम्मि श्रावे, देवी बाळ रे रूप तूं खीर धावे ।। 57।।
हे योगस्वरूपा देवी! आपने मातृशक्ति के रूप में जगत् को जन्म दिया है। अतःआप ही जगत् की माता हो । आप ही माता के रूप में शिशु को स्तनपान कराके उसके तन में स्नेहामृत का संचार करती हो।
देवी जस्सुदा रूप कानं दुलारे, देवी कान रे रूप तूं कंस मारे;
देवी अम्बिका रूप खेतल् हुलावे, देवी खेतला रूप नारी खिलावे ।। 58।
हे देवी! यशोदा के रूप में आपने ही कृष्ण का प्यार-दुलार किया। आपने ही कृष्ण के रूप में कंस का संहार किया। आप माता भवानी के रूप में खेतला (क्षेत्रपाल) को दुलराती हो और खेतला के रूप में निस्सन्तान स्त्रियों को वर देकर प्रसन्न करती हो।
देवी नारि रे रूप पुर्सां धुतारी, देवी पूरसां रूप नारी पियारी;
देवी रोहणी रूप तूं सोम भावे, देवी सोम रे रूप तूं अम्मि श्रावे ।। 59।।
हे देवी! आप ही श्रद्धा का साकार स्वरूप नारीरूप धारण करके पुरुषों को आस्थावान् बनाती हो तथा पुरुषरूप धारण करके नारीहृदय के प्रीतितत्त्व की अभिव्यक्ति का माध्यम बनती हो। आप रोहिणी के रूप में चन्द्रमा के हृदय को भा रही हो तथा चन्द्रमा के रूप में अमृत बरसा रही हो।
देवी रुक्मणी रूप तूं कान सोहे, देवी कान रे रूप तूं गोपि मोहे,
देवी सीत रे रूप तूं राम साथे, देवी राम रे रूप तूं भग्त हाथे ।। 60।।
हे देवी! आप रुक्मिणी के रूप में कृष्ण के साथ शोभित होती हो तथा कृष्ण के रूप में मुग्ध राधा के निःस्वार्थ समर्पित प्रेम का आलम्बन बनती हो। आप सीता के रूप में राम के साथ शोभित होती हो तथा राम के रूप में अनन्य भक्तों के वशीभूत हो।
देवी सावित्री रूप ब्रह्मा सोहाणी, देवी ब्रह्म रे रूप तूं निग्म वाणी;
देवी गौरजा रूप तूं रुद्र राता, देवी रूद्र रे रूप तूं जोग धाता ।। 61।।
हे देवी! आप गायत्री मन्त्र के रूप में ब्रह्म के बुद्धिप्रेरक रूप की शोभा को प्रकट करती हो तथा ब्रह्म के रूप में वेदवाणी का वर्ण्य विषय हो। आप शक्ति के रूप में शिव को पूर्णता प्रदान करती हो तथा शिव के रूप में योगविद्या का प्रर्वतन करती हो।
देवी जोग रे रूप गोरख्ख जागे, देवी गोरखं रूप माया न लागे;
देवी माइया रूप तें विस्नु बांधा,देवी विस्नु रे रूप तें दैत खाधा ।। 62।।
हे देवी! आप योग के रूप में गोरखनाथ में जागृत हो और गोरखनाथ के रूप में माया-बन्धन से मुक्त हो। आपने माया के रूप में विष्णु को बाँध लिया तथा विष्णु के रूप में दैत्यों का दलन किया।
देवी दैत रे रूप तें देव ग्राह्या, देवी देव रे रूप दन्नूज दाह्या;
देवी मच्छ रे रूप तूं संख मारी, देवी संखवा रूप तूं वेद हारी ।। 63।।
हे देवी ! दैत्य आपके ही अंशरूप हैं, पर उन्होंने दुर्भावनावश भाई देवताओं को कैद कर लिया। तब आपने देवरूप में दैत्यों का संहार किया। आपके ही अंशरूप शंखासुर ने आपसे प्राप्त शक्ति का दुरुपयोग करके वेदों का हरण किया। तब मत्स्यावतार के रूप में शंखासुर का वध आपने ही किया।
देवी वेद सुध् व्यास रूपे कराया, देवी चारवां वेद ते चार पाया;
देवी लख्खमी रूप तें भेद दीधा, देवी राम रे रूप तें ज्ञान लीधा ।। 64।।
हे देवी ! आपने व्यास के रूप में वेद का संशोधन करके उसे चार भागों में विभक्त किया। तब चार ऋषियों ने चारों वेदों को ग्रहण कर लिया। आपने महालक्ष्मी के रूप में महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती तीन स्वरूप धारण किए। आपने ही राम के रूप में योगवासिष्ठरूपी ग्रन्थरत्न का ज्ञान ग्रहण किया।
देवी दस्रथं रूप श्रवणं विडारी, देवी श्रव्वणं रूप पित् मात तारी;
देवी कैकयी रूप तें कूड़ कीधा, देवी राम रे रूप वन्वास लीधा ।। 65।।
हे देवी! माता-पिता को कावड़ से तीर्थस्नान कराने वाला श्रवण और उसको मारने वाले राजा दशरथ दोनों आपके ही अंशरूप थे। रावण के वध हेतु आपने ही कैकेयी के रूप में कपट करके राम को वन में भिजवाया तथा आपने ही राम के रूप में वनवास स्वीकार किया।
देवी मृग्ग रे रूप तें सीत मोही, देवी राम रे रूप पाराध होई;
देवी बांण रे रूप मारीच मारी, देवी मार मारीच लख्णं पुकारी।। 66।।
हे देवी! आपने स्वर्णमृग के रूप में सीताजी को मोहित किया और राम के रूप में उस मृग के शिकारी बने । आपने ही बाण के रूप में मारीच को मारा तथा मारीच के रूप में लक्ष्मण को पुकारा।
देवी लख्खणं रांम पीछे पठाई, देवी रावणं रूप सीता हराई;
देवी सक्रजित् रूप हन्मंत ढाळी, देवी रूप हन्मंत लंका प्रजाळी ।। 67।।
हे देवी! आपने सीता के रूप में लक्ष्मण को राम के पीछे भेजा। सीताहरण करने वाला रावण भी चैतन्यस्वरूपा आपका ही अंश था। मेघनाद आपका ही अंशरूप था जिसने हनुमान को पाश में बाँधा। आपने ही हनुमान जी के रूप में लंका को जलाया।
देवी सांग रे रूप लख्णं विभाड़े, देवी लख्खणं रूप घन्नाद पाड़े;
देवी खग्गसं रूप तें नाग खाधा, देवी नाग रे रूप हरिसेन बांधा ।। 68।।
हे देवी! आपने मेघनाद की शक्ति के रूप में लक्ष्मण को मूर्छित किया तथा आपने ही लक्ष्मण के रूप में मेघनाद का वध किया। आपने गरुड़ के रूप में नागों का शिकार किया। उन नागों के रूप में राम की सेना को बाँधने वाली मायाशक्ति आप की ही थी।
देवी मृग्ग रे रूप तें रांम छळ्या, देवी रांम रे रूप दस्कंध दळ्या;
देवी कान रे रूप गिर् नख्ख चाड़े, देवी नख्ख रे रूप हृण्कंस फाडे़ ।। 69।।
हे देवी! आपने मायावी मृग के रूप में राम को छला तथा राम के रूप में रावण का वध किया। आपने कृष्ण के रूप में गिरिराज को नख पर धारण किया। आपने नृसिंह के नाखून के रूप में हिरण्यकशिपु को चीर डाला।
देवी नाहरं रूप हृण्कंस खाया, देवी रूप हृण्कंस इन्द्रं हराया;
देवी इन्द्र रे रूप तूं जग्ग तूठी, देवी जग्ग रे रूप तूं अन्न बूठी ।। 70।।
हे देवी! इन्द्र को हराने वाला हिरण्यकशिपु आपका ही अंशरूप था। उसने शक्ति का दुरुपयोग किया तो आपने नृसिंह के रूप में उसे मार डाला। आप इन्द्र के रूप में यज्ञ से संतुष्ट होती हो तथा यज्ञफल के रूप में वर्षा करके अन्न उत्पन्न करती हो।
देवी रूप हैग्रीव रे निग्म सूंस्या, देवी हैग्रिवं रूप हैग्रीव धूंस्या;
देवी राहु रे रूप तें अम्मि हर्या, देवी विस्नु रे रूप तें चक्र फर्या ।। 71।।
हे देवी ! हयग्रीव आपका अंशरूप था, पर उसने अपने वास्तविक रूप को भूलकर वेदों का हरण किया। तब हयग्रीव अवतार धारण करके आपने वेद हरने वाले हयग्रीव को मार डाला। राहु आपका ही अंशरूप था। पर उसने गर्वोन्मत्त होकर अमृत का हरण कर लिया। तब आपने विष्णुरूप में चक्र से उसका सिर काट डाला।
देवी संकरं रूप त्रीपूर वींधा, देवी त्रीपुरं रूप त्रीपूर लीधा;
देवी ग्राह रे रूप तें गज्ज ग्राया, देवी गज्ज गोविन्द रूपै छुड़ाया ।। 72।।
हे देवी! त्रिपुरासुर आपका ही अंशरूप था, पर उसने अनीतिपूर्वक तीनों लोकों को त्रस्त किया। तब आपने ही शिवरूप में त्रिपुरासुर का वध किया। आपने ग्राह के रूप में गज को पकड़कर पानी में खींच लिया तथा गोविन्द के रूप में डूबते हुए गज को छुड़ाया।
देवी दध्धिची रूप तूं हाड दीधौ, देवी हाड रौ तख्ख तूं वज्र कीधौ;
देवी वज्र रे रूप तूं व्रत्र नाश्यौ, देवी व्रत्र रे रूप तूं शक्र त्राश्यौ ।। 73।।
हे देवी! महर्षि दधीचि के रूप में आपने ही अस्थियों का दान दिया था। आपने ही विश्वकर्मा के रूप में अस्थियों से वज्र तैयार किया था। वज्र के रूप में आपने ही वृत्र के प्राण लिए। वृत्र भी चैतन्यरूप में आपका ही अंशरूप था।
देवी नारदं रूप तूं प्रश्न नांख्या, देवी हंस रे रूप तत् ज्ञान भाख्या;
देवी ज्ञान रे रूप तूं ग्हैन गीता, देवी कृष्ण रे रूप गीता कथीता ।। 74।।
हे देवी! आपने देवर्षि नारद के रूप में पितामह ब्रह्मा के समक्ष गूढ प्रश्न रखे । जब ब्रह्माजी निरुत्तर हो गए, तो आपने ही हंस के रूप मे प्रश्नों का उत्तर देते हुए तत्त्वज्ञान का उपदेश किया। गहन ज्ञान के रूप में श्रीमद्भगवद्गीता आप ही हो। आपने ही श्रीकृष्ण के रूप में गीता के ज्ञान का उपदेश दिया था।
देवी बालमिक् व्यास रूपे तूं कृत्तं, देवी रामगाथा कथा भागवत्तं;
देवी काळ रे रूप तूं पार्थ लूटै, देवी पार्थ रे रूप भाराथ जूटै ।। 75।।
हे देवी! आपने ही महर्षि वाल्मीकि के रूप में रामायण की तथा महर्षि वेदव्यास के रूप में श्रीमद् भागवतपुराण की रचना की। आपने अर्जुन के रूप में महाभारत के युद्ध में विजय प्राप्त की थी। समय बदलने पर अर्जुन को लूटकर उसका गर्व मिटाने वाले वनवासी भील भी आपके ही अंशरूप थे।
देवी रूप अंधेर रे सूर गंजै, देवी सूरजं रूप अंधेर भंजै;
देवी मैख रे रूप देवां डरावै, देवी देवतां रूप तूं मैख खावै ।। 76।।
हे देवी! आंधी के रूप में आप अंधेरा करके सूरज को प्रभावहीन कर देती हो तथा सूर्य के रूप में अन्धकार को नष्ट कर देती हो। देवताओं को आतंकित करने वाला महिषासुर आपका ही अंशरूप था। आपने ही देवों के तेजसमूह के रूप में प्रकट होकर महिषासुर का संहार किया।
देवी तीर्थ रे रूप अघ विस्म टारे, देवी ईश्वरं रूप अधमं उधारे;
देवी पौन रे रूप गर्रूड़ पाड़े, देवी गर्रुड़ं रूप चत्भुज्ज चाड़े ।। 77।।
हे देवी! तीर्थ के रूप में आप घोर पाप से छुड़ा देती हो, तो ईश्वर रूप में अधमों का उद्धार करती हो। आप पवन के रूप में गरुड़ को गति में हरा देती हो तथा गरुड़ के रूप में विष्णु का वाहन हो।
देवी मांणसं रूप मुग्ता निपावे, देवी हंस रे रूप मुग्ता तूं पावे;
देवी वामणं रूप बळ्राव भाड़े, देवी रूप बळ्राव मेेरू उपाड़े ।। 78।।
हे देवी! आप ही मानसरोवर के रूप में मोती उत्पन्न करती हो तथा हंस के रूप में मोती चुगती हो। आपने दैत्यराज बलि के रूप में मन्दराचल को उखाड़ लिया तथा वामन के रूप मंे बलि के समस्त राज्य को तीन कदमों से नाप लिया।
देवी मेरगिर् रूप सायर् वरोळे, देवी सायरं रूप गिर्मेर बोळे,
देवी कूर्म रे रूप तूं मेर पूठी, देवी वाडवां रूप तूं आग ऊठी ।। 79।।
हे देवी ! आपने मन्दराचल के रूप में समुद्रमंथन किया तथा आपने ही सागर के रूप में मन्दराचल को डुबो दिया। आपने कच्छपावतार लेकर डूबते मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया। आप ही समुद्र में बड़वानल के रूप में रहती हो।
देवी आग रूपं सुरासूर डर्या, देवी सर्सती रूप में तेज धर्या;
देवी घट्ट रे रूप अग्सत्त दीधौ, देवी अग्गसत् रूप सामंद पीधौ ।। 80।।
हे देवी ! आपने अग्नि के रूप में देवों तथा दानवों को भयभीत कर दिया था। आप ने ही सरस्वती नदी के रूप में बड़वानल को समुद्र में डाला था। आपने ही घटरूप में अगस्त्य को जन्म दिया तथा आपने ही अगस्त्य के रूप में समुद्र को पी लिया।
देवी सम्मुदं रूप तें हेम कळ्या, देवी पांडवां हेम रे रूप गळ्या;
देवी पांडवां रूप तें भ्रांत भांगी, देवी भ्रांत रे रूप तूं रांम लागी ।। 81।।
हे देवी! आप समुद्र से वाष्प के रूप में उठकर जलरूप में हिमालय पर बरसती हो तथा बर्फ का रूप धारण कर लेती हो। हिमालय की बर्फ में गलने वाले पाण्डव भी आपके ही रूप थे। हे देवी! आपकी लीला अद्भुत है। जयद्रथ द्रौपदी का हरण करके पाण्डवों के मन में उसके सतीत्व के प्रति भ्रान्ति पैदा न कर सका, पर मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम के मन में रावण द्वारा हरी गई सीता के प्रति भ्रान्ति पैदा हो गई।
देवी रांम रे रूप तूं भग्त तूठी, देवी भग्त रे रूप वैकुंठ बूठी;
देवी रूप वैकुंठ प्रब्रह्म वासी, देवी रूप प्रब्रह्म सब्बे निवासी ।। 82।।
हे देवी! आप श्रीराम के रूप में भक्तों पर कृपा करती हो तथा भक्त के रूप में वैकुण्ठ धाम में निवास करती हो। आप वैकुण्ठ के रूप में पर ब्रह्म की लीलास्थली हो तथा परब्रह्म के रूप में घट-घटवासी हो।
देवी ब्रह्म तूं विस्नु अज् रूद्र रांणी, देवी वांण तूं प्राण तूं भूत प्रांणी;
देवी मन्न प्रज्ञान तूं मोख माया, देवी कर्म तूं धर्म तूं जीव काया ।। 83।।
हे देवी! ब्रह्मा विष्णु और महेश आप ही हो। परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी आप ही हो। पांचभौतिक प्राणियों के जीवन का आधार प्राणवायु आप ही हो। आप ही मन तथा उसका परिष्कृत रूप प्रज्ञा हो। जीव को बाँधने वाली माया आप ही हो । जीव की त्रिविध काया, कर्म और धर्म आप ही हो।
देवी नाद तूं बिन्दु तूं नव्व निद्धि, देवी सीव तूं सक्ति तूं स्रव्व सिद्धि;
देवी बापड़ा मानवी कांइ बूझे, देवी तोहरा पार तूं हीज सूझे ।। 84।।
हे देवी! नाद, बिन्दु,अष्ट सिद्धि, नौ निधि, शिव और शक्ति आप ही हो। माया के बँधन में बँधा हुआ मानव आपको क्या जाने। अपनी महिमा का पार आप ही पा सकती हो।
देवी तूंज जांणै गति ग्हैन तोरी, देवी तत्त रूपं गति तूंज मोरी;
देवी रोग भव् हारणी त्राहि मामं, देवी पाहि पाहि देवी पाहि मामं ।। 85।।
हे देवी! आपकी गहन लीला को आप ही समझ सकती हो। मुझमें जो चेतना है वह आपकी ही सत्ता है। मेरी गति आप ही हो। हे भवरोग को मिटाने वाली माँ! मेरी रक्षा करो, रक्षा करो, रक्षा करो।
।। छप्पय ।।
रगता सेता रंणा नमो माँ क्रसना नीला
कुळेस्सुरी आसुरी सुरी सुसिला गर्वीला,
दीरघ लघु वपु द्रढ़ा सबेही रूप विरूपा
वकला सकला व्रजा उपावंण आप अपूपा,
घण पवण हुतासण सूं प्रबळ, चामुंडा वंदूं चरण,
कवि पार तुझ ईसर कहै, कालिका जांणे कवण ।।1।।
हे माँ! आपके अनेक रूप हैं। आप अरुणवर्णा, श्वेतवर्णा तथा नीलवर्णा हो । आप भूलोक में कुलेश्वरी, पाताललोक में आसुरी शक्ति तथा देवलोक में देवशक्ति हो। आप सौम्य प्रकृति के प्राणियों में सुशीलता के रूप में तथा प्रखर पराक्रमी जनों में गर्व के रूप में शोभायमान हो। आपका स्वरूप बड़े से बड़ा (महतो महीयान्) तथा छोटे से छोटा (अणोरणीयान्) है। आप भक्तरक्षा के लिए दृढ़प्रतिज्ञ हो। आप सर्वरूपा हो। आप त्रिगुणातीत तथा त्रिगुणमयी हो। हे व्रज की उपास्या अम्बा! आपने अपने-आप से ही जगत् की सृष्टि की है। आप पवन और अग्नि से भी प्रबल तथा प्रचण्ड हो। हे चामुण्डा ! मैं आपके चरणों की वन्दना करता हूँ। आप कवियों की वर्णनशक्ति से परे हो, तथापि आपके दास ईसर ने आपकी महिमा का वर्णन करने की चेष्टा की है। हे कालिका! आपको कौन जान सकता है।
घम घमंत घूघरी, पाय नेउरी रणंझण,
डम डमंत डाकळी, ताळ ताळी बज्जे तंण,
पाय सिंघ गळ अडै़, चक्र झळहळे चऊदह,
मिले क्रोड़ तेतीस, उदो सुरियंद अणंदह,
अद्भूत रूप सकती अकळ, प्रेम दूत पाळंतिय
गहे गहे वार डमरू डहक, महमाया आवंतिय ।। 2।।
हे महामाया माँ! आप इस अकिंचन ईसरदास को दर्शन देने सिंह पर सवार होकर आई हो। घूघरी की घमकार और नेवर की रणझण ध्वनि से वातावरण व्याप्त है। डमरू की मधुर डम-डम ध्वनि गूंज रही है। तेतीस करोड़ देवी-देवता आनन्द से तालबद्ध करतल ध्वनि कर रहे हैं। आपका एक चरण सिंह की गर्दन पर शोभायमान है। हे आदिशक्ति चक्रेश्वरी! आपके चक्र की प्रभा चौदह लोकों में व्याप्त है। आपका स्वरूप अद्भुत है। प्रेमतत्त्व आपकी कृपा का सन्देशवाहक है जो दुःख और दीनता से बचाता है। उसकी शक्ति अपार है।
चढ़े सिंघ चामुण्ड,कमळ हुंकारव कद्धौ,
डरो चरन्तो देख, असुर भागियो अवद्धौ,
आदि सक्ति आपड़े, रूक वाहिये रमंतां,
खाळ रगत खळहळे, ढळे ढींगोळ धरंतां,
हींगोळराय अठदस हथी, भखै मैख भुवनेसरी,
कवि जोड़ पांण ईसर कहे, उदो उदो आसापुरी ।। 3।।
सिंह पर सवार चामुण्डा माता ने मुखकमल से हुंकार की, तो भैंसे के रूप में विचरण कर रहा महिषासुर जो सबके लिए अवध्य था, डरकर भागने लगा। आप आदिशक्ति ने उसके सामने प्रकट होकर उसे रोका तथा खेल-खेल में त्रिशूल का प्रहार किया। रक्त का नाला बह निकला और महिषासुर वहीं ढेर हो गया। हे अठारह भुजाओं वाली भुवनेश्वरी हिंगलाजमाता! आपके सिंह ने महिषासुर को अपना आहार बना लिया। हे आशापूरा माता! आपका भक्त ईसरदास हाथ जोड़कर कर प्रार्थना कर रहा है कि आप भक्तों की रक्षा के लिए ऐसे ही बार-बार अवतरित होती रहो।
।। अथ देवियांण ग्रन्थ सम्पूर्णम्।।
देवियांण -माहात्म्य
दोहा
बांचो दुर्गा सप्तशती, या बांचो देवियांण।
पाठी श्रोता को परम, सुखप्रद उभय समान ।। 1।।
चाहे दुर्गासप्तशती का पाठ करो या देवियांण का। पाठ करने और सुनने वाले के लिए दोनों समान रूप से सुखदायक हैं।
देवियांण सुणि देवि मां, श्रीमुख किये बखान।
देवियांण किय ईशरा, चण्डीपाठ समान।।2।।
देवी माता रुक्मिणीजी ने ईसरदास से देवियांण का पाठ सुनकर उसके माहात्म्य का बखान करते हुए कहा – ‘‘ईसरा! तुमने देवियांण की रचना चंडीपाठ (दुर्गासप्तशती) के समान की है।
मार्कण्ड मुनिराय कृत, चण्डी पाठ समान।
ईसर कृत देवियांण को, म्हातम बड़ो महान ।।3।।
ईसरदास द्वारा रचित देवियांण का माहात्म्य बहुत अधिक है। यह महामुनि मार्कण्डेय द्वारा रचित चंडीपाठ (दुर्गासप्तशती) के समान है।
देवियांण को प्रति दिवस, जे घर होसी पाठ।
ते घर रहसी रिद्धि सिद्धि, राज-पाट सम ठाठ ।।4।।
जिस घर में देवियांण का प्रतिदिन पाठ होगा, उस घर में रिद्धि-सिद्धि का निवास होगा तथा राजपाट के समान ठाठ होगा।
कायम बाँचे के सुणे, देवियांण जे कोय।
इच्छित अैहि सुख अमित, पावे मानुष सोय ।।5।।
जो देवियांण का पाठ नित्य-नियम करता या सुनता है वह मनुष्य कामना के अनुसार अपरिमित सुख पाता है।
विद्या बल सुख सम्पदा भगती ज्ञान विराग
मातु कृपा ते भक्तजन पावे हिय अनुराग।।6।।
देवियांण का पाठ करने वाला भक्त श्री माताजी की कृपा से विद्या, बल, सुख, सम्पत्ति, भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और प्रेम पाता है।
Ishardasji krut Devian jo apne likha uske liye dhanayvad Larkin usme me chhtiya chhatiya h jo dur kare
Ati sunder hkum
.. Bhoth acha
बहुत सुन्दर हुकम, भक्त कविराज श्री ईसरदास जी द्वारा भक्तिमय देवियांण का हिंदी वर्णन बहुत ही बडिया ज्ञान की ओर अग्रसित करता है, आपका तह दिल से आभार हुकम
मां भगवती सदा आप पर कृपा बरसती रहे यही कामना करता हूं